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भरतवाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल के लिये तैयार रहता है, चाहे यह युद्ध भाई के साथ ही सड़ना पड़े। यह बात:भिन्न है कि षट्खण्डविजयी इस चक्रवर्ती को बाहुबलि के साथ युद्ध में स्वयं मुंह की खानी पड़ी है। द्वन्द्वयुद्ध में उसकी वीरता का परिचय अवश्य मिलता है, किन्तु उसमें वही विजय प्राप्त नहीं कर सका । यदि देवगण हस्तक्षेप न करते तो उसकी स्थिति का सहज अनुमान किया जा सकता था।
राज्य लिप्सा को छोड़कर भरत शिष्ट तथा शालीन व्यक्ति है । महात्माओं के प्रति उसे श्रद्धा है। वह युद्ध से पूर्व चैत्य में जाकर आदिप्रभु की वन्दना करता है तथा कैवल्यप्राप्ति होने पर अपने अनुज को भी प्रणिपात करता है । उसकी साम्राज्य क्षुधा की परिणति, अन्ततोगत्वा, केवलज्ञान में होती है। . ....
बाहुबलि का अस्तित्व स्वाभिमान तथा स्वाधीनताम की चीनन्न व्याख्या है। दर्पशाली पुरुषों में अग्रगण्य वह प्राण छोड़ सकता है, स्वाभिमान कदापि नहीं। उसे पितृतुल्य अग्रज की अधीनता भी मान्य नहीं है । भरत का दूत तथा उसका अपना मन्त्री, भरत की अतुलित बीरता का भय दिखाकर उसे उसका प्रमुख स्वीकार करने 'को विवश करने का प्रयास करते हैं, किन्तु वह अपनी स्वतन्त्रता का समझौता करने को कदापि तैयार नहीं है । इस सम्बन्ध में वह देवताओं के अनुनय को भी ठुकरा देता है । वह उस सर्वभक्षी उद्भ्रान्तगज को अपनी भुजा के अंकुश से सही मार्ग पर लाने का संकल्प करता है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वह हृदयहीन अथवा बन्धुत्व की भावना से शून्य है । अग्रज के दूत के आगमन से उसका हृदय शैशव की चपलताओं की सुधियों से भर जाता है और उसमें भ्रातृ-प्रेम छलक उठता है। उसकी कामना है कि स्नेह से परिपूर्ण उनके बन्धुत्व का दीप 'खेदवात' से सुरक्षित रहे। वस्तुतः भरत उसके लिये पितृवत् पूजनीय है किन्तु उसकी प्रभुत्व-स्वीकृति की ललकार से बाहुबलि के स्वाभिमान का नाग फुफकार उठता है।
अखप्रभृति मे भ्राता पूज्योऽयं तातपादवत् ।
अतः परं विरोधी मे भ्राता नो तादृशो खलु ॥ ३-११ उससे अधीनता स्वीकार करने की भरत की अपेक्षा सिंह से मांस छीनने के समान विवेकहीन है।
बाहुबलि साक्षात् शौर्य है । वह सचमुच बाहुबली है । वज्रधारी इन्द्र मन से ३८. भटैर्वृतोऽसून किल मोक्ष्यते रणे न च स्मयं हि प्रथमोऽभिमानिनाम् । भ०
बा० महाकाव्य, ११३६ ३६. मद्दोर्दण्डांकुशाघातं विना मार्गे न गत्वरः। वही, ३.१५ ४०. वही, २.१६ ४१. मत्तः सिंहादिव पलं सेवामर्थयते वृथा । वही, ३.१३