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भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल
१७३ आरोप पर आधारित है ! रात्रि की नीरवता में जैसे कामी अपनी प्रेयसी का अधोवस्त्र खोलकर उसके लावण्य को उद्घाटित कर देता है उसी प्रकार यह देखकर कि कमलिनियां सो रही हैं और कुमुदिनियां उसकी अन्तरंग सखियां हैं, चन्द्रमा ने तुरन्त हाथ बढ़ा कर रजनी-नायिका की काली साड़ी खींच दी है। उसका पोन्दर्य चारों ओर छिटक गया है।
एतवयस्याः कुमुदिन्य एताः पश्यन्तु, सुप्ताः पुनरम्बुजिन्यः। विधुविचार्ये ति निशांगनायास्तमित्रवासः सहसा चकर्ष ॥ ८.५४
पुण्यकुशल ने प्रकृति के उद्दीपन पक्ष का भी चित्रण किया है। किन्तु यह ज्ञातव्य है कि समवर्ती प्रकृति-वर्णन की शैली के विपरीत पुण्यकुशल ने अपनी सुरुचि के कारण उसके प्रति अधिक उत्साह नहीं दिखाया है। इससे उसका प्रकृतिचित्रण उस कुरुचिपूर्ण शृंगारिकता से आक्रांत नहीं हुआ, जो माघ आदि के प्रकृतिवर्णनों में मिलती है।
वसन्त में कोकिलाओं का मादक स्वर, सुरभित बयार तथा चांदनी-भरी नीरव रातें प्रणयकुपित कामिजनों को मानत्याग के लिए विवश कर देती हैं।
युवद्वयीचित्तदरीनिवासिमानग्रहग्रन्थिभिदो विरावाः। पुंस्कोकिलानां प्रसभं प्रसनुर्वनस्थलीन्मिषितासु पुष्पैः॥ १८.१३ पयोधिडिण्डीरनितान्तकान्तं पीयूषकान्तेविचचार तेजः। तेनैव चेतांसि विलासिनीनां वितेनिरे मानपरांचि कामम् ॥ १८.१६
पुण्यकुशल ने पशुप्रकृति का अंकन करने में रुचि नहीं ली है। अवश्य ही उसकी पैनी दृष्टि पशुजगत् की चेष्टाओं का सूक्ष्म विश्लेषण करने में समर्थ थी। भ. बा. महाकाव्य में केवल एक स्थान पर, ग्रीष्म की दोपहरी में पानी पीने के लिये तालाब की ओर दौड़ते हुए पशुओं का अलंकृत चित्रण हुआ है, जो कवि के सादृश्यविधान के नैपुण्य के कारण सौन्दर्य से चमत्कृत हो उठा है।
पुण्यकुशल प्रकृति-चित्रण की समसामयिक प्रवृत्तियों से अप्रभावित तो नहीं रहा, परन्तु अपनी सुरुचि के कारण उसने प्रकृति-चित्रण को न अपने कामशास्त्रीय पाण्डित्य के दर्शन का अखाड़ा बनाया है और न दूर की कौड़ी फैकी है, जैसा उसके आदर्शभूत माघकाव्य में हुआ है। चरित्रचित्रण
भ. बा. महाकाव्य में भरत और बाहुबलि केवल दो मुख्य पात्र हैं और दोनों ही काव्य के नायक हैं। भरत के नायक होने में तो कोई सन्देह ही नहीं हो सकता। उसका चक्रवतित्व ही उसे नायक के पद पर प्रतिष्ठित करता है । बाहुबलि, न केवल केवलज्ञानी है. वह, परिभाषा के अनुरूप, प्रारम्भ से अन्त तक, काव्य की काया में