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भरतवाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल
१६६ माघ के घोर वासनामय वर्णनों से की जा सकती है ।२६ स्वयं पुण्यकुशल का श्रृंगारवर्णन वासना से मुक्त नहीं है। परन्तु अश्वघोष की तरह संयमधन जैन साधु को नारी शीघ्र ही विकर्षणकारी तथा तप की बाधक प्रतीत होने लगती है ।
सैनिक युगलों की भावी वियोगजन्य विकलता तथा सेना के प्रस्थान के पश्चात् योद्धाओं की पत्नियों की मानसिक वेदना में विप्रलम्भ का दंश है। उनकी विह्वलता को कवि ने सूक्ष्मता से अंकित किया है। वे डबडबायी आँखों से प्रिय के पगचिह्नों को ढूंढने का प्रयास कर रही हैं। वे उस स्थान को छोड़ने को कदापि तैयार नहीं, जहाँ उनके प्रियतमों ने उनसे विदा ली थी। विरह में प्रियतम से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु के प्रति यह रागात्मक आसक्ति बहुत स्वाभाविक एवं हृदयस्पर्शी है।
वियोगतः प्राणपतेः पतन्ती विसंस्थुलं पाणिषतापि सख्या। चैतन्यमापय्य च तालवृन्तानिलेरनायि स्वगृहं मृगाक्षी ॥ -- अमुंचती स्थानमिदं विमोहात् प्रेयःपदन्यासमनुवजन्ती। काचिद् गलद्वाष्पजलाविलाक्षी सत्येरिताप्पुत्तरमार्पयन्न ॥ ६.२०-२१
भ.बा. महाकाव्य में विप्रलम्भ की तीव्रतम व्यंजना कदाचित् योखा के इस प्रयाणकालीन चित्रण में हुई है। प्रस्थान का समय निकट आने पर उस वीर सैनिक की प्रेयसी विरहव्यथा से मुरझा गई। प्रिया की विकलता देखकर उसके धीरज का बांध टूट गया, उसकी अंखें छलक उठीं और वह मुंह झुकाकर चुपचाप रणभूमि को चल पड़ा । 'भ्यगाननः' में असीम ध्वनि है, जिसकी कल्पना सहृदय कर सकता है।
वियोगदीनाक्षमवेक्ष्य वक्त्रं तदैव कस्याश्चन संगराय । वाष्पाम्बुपूर्णालियुगः स्वसौधान्न्यगाननः कोऽपि भटो जगाम ॥ ६.७
दूत से चक्रवर्ती भरत का अपमानजनक सन्देश सुनकर बाहुबलि के क्रोध का ओर-छोर नहीं रहता। आवेश से उसका शरीर लाल हो जाता है और आँखों में खून उतर आता है। उसकी इन चेष्टाओं में रौद्ररस के अनुभावों की प्रबल अभिव्यक्ति है, जो अनुभाव-चित्रण में कवि की कुशलता घोतित करती है।
क्षिपन् गुंजारणे नेत्रे विद्रुमे इव वारिधिः । कोपवीचीचयोद्रेकात् स्वदोर्दण्डतटोपरि ॥ अमिमान्तमिवान्तस्तु बहिर्यातुमिवोचतम् ।
धरन् शौर्यककुमन्तं त्रुटयदंगदबन्धनः॥ २६. किरातार्जुनीय, ८.५१, शिशुपालवध, ७.४६ २७. कामिनी हि न सुखाय सेविता । भ.बा. महाकाव्य, ७.४०
अंगारधानीस्तपसां वधूस्त्वं हित्वा । वही, १०.४४