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जैन संस्कृत महाकाव्य
श्रृंगार कालिदासोत्तर कवियों की कोटि का श्रृंगार है । वे कहीं-कहीं आवश्यकता से अधिक वाच्यप्रणाली का आश्रय ले लेते हैं । फलतः भारवि, माघ आदि की भांति उनका शृंगारिक चित्रण अश्लीलता की सीमा तक पहुंच गया है। "वह क्षणिक उत्तेजना भले ही पैदा कर दे, शाश्वत प्रभाव नहीं डाल सकता।" इन वर्णनों में पुण्यकुशल माघ की तरह शृंगार का कवि न रह कर काम-कला का कवि बन गया
इस दृष्टि से उपर्युक्त प्रसंगों में श्रृंगार के कई सरस चित्र मिल सकते हैं । एक नायिका फूल तोड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ना चाहती है। वह चढ़ने में समर्थ है किन्तु प्रिय का स्पर्श पाने की अधीरता के कारण उसने गिरने का ढोंग रचा । नायक ने तत्क्षण उसे भुजाओं में भर लिया। इस प्रक्रिया में उस कामाकुल नायिका की कंचुकी टूटकर गिर गयी। केवल अधोवस्त्र शेष रहा। लज्जा से उसकी आंखें बन्द हो गयीं । यह स्पर्श का सुख था।
पुष्पशाखिशिखरावरूढये शक्नुवत्यपि च काचिदिच्छति । मन्मथाढ्यदयितांगसंगम पूच्चकार पतिताहमित्यगात् ॥ धारिता प्रियभुजेन सा दृढं स्कन्धलग्नलतिकेव तत्क्षणात् । नीवीबद्धसिचयावशेषका ह्रीनिमीलितनयना व्यराजत ॥ ७.४१-४२
कोई नायिका प्रिय के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है। सखी को बाहर जाने का संकेत करते हुए उसने शिकायत की, सखी! देखो, वह कितना निष्ठुर है ? आने का नाम भी नहीं लेता। सखी उसका अभिप्राय समझकर बाहर चली गयी । ज्योंही प्रियतम ने घर में कदम रखा, नायिका ने किवाड़ बन्द कर लिये । - काचिद् वितांगममात्मभर्तुः प्रियालि ! पश्यायमुपैति नैति।
छलादितीयं विजनं चकार पश्चात् प्रियाप्तौ च ददौ कपाटम् ॥ ८.२५.
किसी नायक ने जल्दी से आकर नायिका का आलिंगन किया। नायिका को उससे संतोष नहीं हुआ। उसने व्यंग्य करते हुए कहा-मैं जानती हूं, तुम्हारे हृदय में कोई अन्य सुन्दरी स्थित है । उसे कष्ट न हो, इसीलिए तुम मेरा गाढालिंगन नहीं कर रहे हो।
ससम्भ्रमं काचिदुपेत्य कान्ता श्लिष्टा प्रियेणेति जहास कान्तम् ।
हृदि स्थिता या तुदति त्वदीये गाढं न संश्लेषमतो विधत्से ॥ ८.२६ और यह सम्भोग का खुला निमंत्रण मर्यादा की समूची सीमाओं को लांघ गया है। यह व्यभिचार की पराकाष्ठा है।
एहि एहि वर ! देहि मोहनं नेतरासु हृदयं विधेहि रे । ७.३७ ये पुण्यकुशल के ठेठ विलासी नित्रों में से हैं जिनकी तुलना भारवि तथा