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भरत बाहुबलि महाकाव्य : पुण्यकुशल
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करता है जिसके फलस्वरूप समरभूमि प्रेतराज की राजधानी-सी प्रतीत होती है । भरत और बाहुबलि के द्वंद्वयुद्ध में वीररस का प्रभावशाली चित्रण हुआ है । इस दृष्टि से उनके मुष्टियुद्ध का वर्णन विशेष उल्लेखनीय है । दोनों वीर पूर्ण निष्ठा से एकदूसरे को पराजित करने को उतारू हैं ।
तौ धूलीललिततनू विकीर्णकेशौ स्वेदोद्यज्जलकणसजिभालपट्टौ । रेजाते रणभुवि शैशवंकलीलास्मर्ताराविव न हि विस्मरेत् स्मृतं यत् ॥ शंबेनाचलमिव नायकः सुराणां चक्रेशो द्रढिमजुषाऽथ मुष्टिना तम् । चण्डत्वादुरसि जघान सोऽपि जज्ञे वंधुर्योपचितवपुस्तदीयघातात् ॥ उच्छ्वासानिलपरिपूर्ण नासिकोऽसौ तद्द्घातोच्छलितरुषा करालनेत्रः । निःशकं प्रति भरतं तदा दधाव भोगीन्द्रं गरुड इवाहितापकारी ॥ १७१४१-४३
उपर्युक्त युद्धवर्णनों के अतिरिक्त नवें सर्ग में भरत को प्रोत्साहित करने वाली सेनापति सुषेण की उक्तियां तथा ग्यारहवें सर्ग में वीरपत्नियों की उत्साहवर्द्धक उक्तियां" वीररसोचित दर्पं तथा स्वाभिमान से परिपूर्ण हैं । सेनापति की मान्यता है कि बलपूर्वक घर्षित शत्रु की भूमि, सुरतमथिता कामिनी की तरह, अधिक आनन्द देती है । वीर के लिये युद्ध उत्सव के समान है जो कायर में भी वीरता का संचार करता है ।
हठात् रिपूणां वसुधा बिशेषात् क्रान्ता मृगाक्षीव सुखाय पुंसाम् । उत्संगमेते समरोत्सवे हि कि कातरत्वं विदधाति वीरः ॥ ६२
परन्तु जैन कवि की अहिंसावादी वृत्ति तुरंत युद्धजन्य संहार के प्रति विद्रोह कर उठती है और उसे युद्ध विष के समान त्याज्य प्रतीत होने लगता है" ।
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पुण्यकुशल का मन वीररस से भी अधिक शृंगाररस के वर्णन में रनता है । उसकी भाषा में श्रृंगार मुख्य रस है और नारी शृंगार रस का 'केलिगृह । भ. बा. महाकाव्य में शृंगार रस के परिपाक के लिये कई प्रसंग हैं । वनविहार तथा चंद्रोदय के वर्णन, इस दृष्टि से, बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इनमें क्रमश: सैनिक युगलों की विलासचेष्टाओं तथा सुरतक्रीड़ाओं का वर्णन किया गया है। पुण्यकुशल का
२२. भ. बा. कहाकाव्य, ६.५८-६३
२३. वही, ११.२० - ४०
२४. संमरो गर इवाकलनीयः । वही, १६.२१
बिग्रहो न कुसुमैरपि कार्य: । वही १३.३४
गीर्वाणो गरमिति संगरं तदावेत् । वही, १७.२८ कलहं तमवेहि हलाहलकम् । वही, १७.७० २५. रसस्य पूर्वस्य च केलिसभिः । वही, १.३६
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