________________
जैन संस्कृत महाकाव्य
११२
'भूभृत्' को समस्त पद में डालकर कल्पना के सौन्दर्य और काव्यात्मक प्रभाव को नष्ट कर दिया है । अतः मूल की भाँति यह नायिका की व्यथा की व्यंजना नहीं करा सकती ।
तनुतनूरुहजव्यधतो व्यथा भवति तत्र विलासवतीहृदि ।
यदुजभूमृदसौ स्थितिमाश्रयद्यदूत बाधत एव किमद्भुतम् ॥ ३.१२
नैषधचरित में विरहतप्त दमयन्ती मलयानिल से प्रार्थना करती है कि तू मेरे मरने के बाद मेरी भस्म उस दिशा में बिखेर देना जहां मेरा प्रियतम रहता है । मलयानिल भी संताप देने के कारण उसकी शत्रु है पर सारा वैर मृत्यु के साथ समाप्त हो जाता है । वैसे भी वह सभ्य है क्योंकि वह दक्षिण दिशा से बह कर आ रही है । पद्मसुन्दर ने इस कल्पना को भी अपने सांचे में ढालने का प्रयत्न किया है पर पूर्वोद्धृत पद्य की तरह इसका भी प्रभाव समाप्त हो गया है ।
प्राणा वियोग दहनज्वलदूषरेऽस्मिन्मान्मान से धृतिरहो प्रतिभाति किं वः । मत्प्राणनाथदिशमप्यनिला भवन्तः संश्लिष्य तन्मम जनुः फलिनं विधद्ध्वम् ।।३.१७८
अरी मेरी प्राणवायु ! तुम विरहाग्नि से संतप्त मेरे मानस के ऊसर में क्यों दुःख झेल रही हो । यदि तुम उस दिशा को छू सको, जहां मेरा प्रियतम रहता है तो मैं कृतार्थ हो जाऊंगी। प्रिय के वियोग में जीने की अपेक्षा मौत कहीं अच्छी है ।
निम्नोक्त पद्य कनका के विरह की तीव्रता को अधिक प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करता है । वह हृदय में धधकती विरह की ज्वाला को शान्त करने के लिये वक्ष पर सरस कमल रखना चाहती है, पर इससे पूर्व कि वह कमल उसके अंगों का स्पर्श करे, उसकी गर्म आहों से जलकर बीच में और वह उसे परे फेंक देती है । कल्पना सचमुच बहुत असाहयता की पराकाष्ठा है । कहना न होगा, यह कल्पना भी नैषधचरित से ली यी है ।
ही राख हो जाता मनोरम है । यह
२४.
२३. न काकुवाक्यैरतिवाममंगजं द्विषत्सु याचे पवनं तु दक्षिणम् ।
दिशापि मद्भस्म किरत्वयं तथा प्रियो यया वं रविधिर्वधावधिः ॥ वही, ६.६३ तुलना कीजिये : यह तन जारौं छार हूँ, कहाँ कि पवन उडाय ।
मकु तेहि मारग उडि परे, कंत धरै जेहि पाय ॥ पद्मावत
२४. स्मरहुताशनदीपितया तया बहु मुहुः सरसं सरसीरुहम् ।
श्रयितुमर्धपथे कृतमन्तरा श्वसितनिर्मितममं रमुज्झितम् ॥ नैषध, ४.२६