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हीरसौभाग्य : देवविमलगणि
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रणभूमि में मृत विपक्षी योद्धाओं के रक्त की धारा प्रवाहित हो गयी। कीर्ति निर्मल गंगा है । शत्रु के अपयश की कालिमा कृष्णवर्णा यमुना है। रक्त की धारा सरस्वती की प्रतिनिधि है। तीनों पवित्र नदियों के संगम के कारण युद्धस्थल प्रयाग बन गया है । वीर योद्धा समरांगण की उस त्रिवेणी में स्नान कर—मरकर--स्वर्ग को प्राप्त हुए जैसे प्रयाग में स्नान करने से पुण्यात्मा व्यक्ति स्वर्ग का सुख भोगता
हीरसौभाग्य में श्रृंगार के चित्रण के लिए अधिक अवकाश नहीं है। वैसे भी शृंगार शान्त का विरोधी है, जो काव्य का अंगी रस है। हीरसौभाग्य में विप्रलम्भ का नितान्त अभाव है। काव्यनायक के माता-पिता नाथी तथा कुरां की यौवनसुलभ कामकेलियों में सम्भोग शृंगार का मधुर चित्र दिखाई देता है। रति और काम की तरह वह मदिर दम्पती यौवन को पोर-पोर भोगने को आतुर है। .
अथो मिथः प्रीतिपरीतदम्पती इमौ कलाकेलिविलासशीलिनौ। विलेसतुः केलिसरःसरिद्वनीगिरीन्द्रभूमीषु रतिस्मराविव ॥ २.५६ प्रफुल्लकंकेल्लिरसालमल्लिकाकदम्बजम्ब निकुरम्बचुम्बिते। अलीव साकं सुदृशा स निष्कुटे कदापि रेमे श्रितसूनशीलनः ॥ २.६१
शृंगार का फल वात्सल्य है। हीरसौभाग्य में, कुमार हीर के शैशव के वर्णन में, वात्सल्य रस की मनोरम अभिव्यक्ति मिली है। धात्री द्वारा बोलने का अभ्यास कराने पर वह सुग्गे की भांति तुतलाला हुआ तथा उसकी अंगुली पकड़ कर ठुमक ठुमक कर चलता हुआ, माता-पिता का मन मोहित करता है।
धात्र्योदितां प्रथमतः पृथुकप्रकाण्डः
कीरस्य शाव इव चारुमुवाच वाचम् । तस्याः पुनः समवलम्ज्य करांगुलीः स
लीलायितं वितनुते स्म गतो स्विकायाम् ॥ ३.७१. कथानक की कुछ घटनाएं अद्भुत रस की सृष्टि करती हैं । सतरहवें सर्ग में, शासनदेवी पद्मावती समुद्र से प्रकट होकर सार्थवाह सागर को आत्महत्या करने से रोकती है। समुद्रतल से प्राप्त जिन-बिम्ब के प्रभाव से समुद्र का समूचा उत्पात शान्त हो जाता है । इस प्रसंग में अद्भुत रस की निष्पत्ति हुई है ।
कृष्टेव तद्भाग्यभरैस्तदाविर्भूयाभ्रमार्गेऽब्धिगभीररावा। पद्मावती वाचमिमामुवाच मा वत्स कार्षिरिह साहसं त्वम् ॥ १७.४०. क्षणाददृश्योऽभवदिन्द्रजालमिवोपसर्गोऽथ प्रभोः प्रभावात् । चमत्कृतस्तत्प्रविलोक्य पेटामभ्यर्च्य भोगादि पुरो व्यधत्त ॥ १७.४६.
करुणरस का प्रसंग काव्य के अन्तिम सर्ग में है। गुरु हीरविजय के स्वर्गा