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हीरसौभाग्य : देवविमलगणि
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काव्यशास्त्रीय विधान का पालन करते हुए श्रीहर्ष तथा देवविमल दोनों ने अपने काव्यों में प्रकृतिचित्रण को पर्याप्त स्थान दिया है । नैषध के उन्नीसवें सर्ग में प्रभात का वर्णन है जो शास्त्रीयता तथा प्रौढोक्ति के भार से दब कर अदृश्य-सा हो गया है। हीरसौभाग्य के द्वितीय तथा नवम सर्ग में देवविमल से निशावसान तथा सूर्योदय का चित्रण किया है। द्वितीय सर्ग का राज्यन्त का चित्रण अधिक कवित्वपूर्ण तथा चित्ताकर्षक है । इसी प्रकार दोनों कवियों ने रात्रि तथा चन्द्रोदय का वर्णन किया है । नैषध के बाइसवें सर्ग में चन्द्रोदय का विस्तृत वर्णन नल-दमयन्ती की केलियों की मादक भूमिका निर्मित करता है। देवविमल ने सप्तम सर्ग में इसे स्थान दिया है, जो शासनदेवी के आविर्भाव की पृष्ठभूमि माना जा सकता है। प्रकृतिचित्रण के इन प्रसंगों में दोनों काव्यों में अत्यल्प साम्य है । अप्रस्तुतों के सन्तुलित तथा विवेकपूर्ण प्रयोग के कारण हीरसौभाग्य का प्रकृतिचित्रण नैषध की अपेक्षा श्रेष्ठ तथा रोचक है।
__ नैषधचरित तथा हीरसौभाग्य दोनों अप्रस्तुतों के असह्य भार से आक्रान्त हैं । श्रीहर्ष के अप्रस्तुत शास्त्रीय तथा दूरारूढ़ हैं । अत: वे प्रस्तुत विषय के विशदीकरण में सहायक नहीं हैं । देव विमल के अप्रस्तुतों को सामान्यतः संयत कहा जा सकता है।
देवविमल के लिए नैषधचरित धर्मग्रन्थ से कम पूजनीय नहीं है । उसने न केवल उपर्युक्त प्रसंगों में श्रीहर्ष के भावों/पदावली को ग्रहण किया है अपितु उसके विशिष्ट भाषात्मक प्रयोगों को काव्य में समाविष्ट किया है और स्वोपज्ञ टीका में इस ऋण को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार किया है। रसयोजना
___ समस्त काव्यगुणों तथा अन्य विशेषताओं के बावजूद हीरसौभाग्य का उद्देश्य, संयमधन आचार्य हीरसूरि के नि:स्पृह चरित के द्वारा, संसार की अपरिहार्य दु:खमयता के विरोधी ध्र व के रूप में मोक्ष की सुखमयता की स्थापना करना है । इस उदात्त उद्देश्य की पूर्ति के लिए काव्य में, कई स्थलों पर, जीवन की भंगुरता, भोगों की विरसता तथा संयम और अपरिग्रह के गौरव का तत्परता से प्रतिपादन किया गया है। फलत: हीरसौभाग्य में शान्तरस की प्रधानता है। देवविमल ने स्वयं प्रकारान्तर से काव्य में शान्तरस की परिपूर्णता का संकेत किया है—-प्रशान्तः रसैः पूरित: पूर्णकामो भवान् (११.६४) । हीरसौभाग्य में, चौदहवें सर्ग में सम्राट अकबर तथा हीरविजयसूरि की धर्मचर्चा के अन्तर्गत और दसवें तथा सतरहवें सर्ग में शान्तरस के आलम्बन विभावों का चित्रण हुआ है । शान्तरस के इन आधारभूत भावों का सशक्त निरूपण पंचम सर्ग में विजयदानसूरि की देशना में दिखाई देता है, जहां