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भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल प्रारम्भ होता है।
प्रथम सर्ग में दिग्विजयी भरत बाहुबलि के पास एक वाक्पटु दूत भेजता है। वह मार्ग में बहली प्रदेश की प्राकृतिक सुषमा को निहारता हुआ तथा सर्वत्र बाहुबलि एवं उसके योद्धाओं के अद्वितीय पराक्रम की रोचक गाथाएं सुनता हुआ राजधानी तक्षशिला पहुंचता है। तक्षशिला-नरेश के दाहक तेज को देखकर दूत की घिग्गी बंध जाती है । द्वितीय सर्ग में बाल्यकालीन चपलताओं का स्मरण करके बाहुबलि का हृदय भ्रातृस्नेह से छलक उठता है। उसकी कामना है कि उनके बन्धुत्व का दीपक खेद की हवा-बतास से सुरक्षित रहे । दूत, भरत की षट्खण्डविजय के संक्षिप्त विवरण के द्वारा उसके प्रताप को रेखांकित करता हुआ, बाहुबलि को अग्रज का प्रभुत्व स्वीकार करने की प्रेरणा देता है। तृतीय सर्ग में बाहुबलि दूत की दुश्चेष्टा से क्रुद्ध होकर अपनी अनुपम वीरता तथा भरत की लोलुपता का बखान करता है। उसका विश्वास है कि उसे पराजित किये बिना भरत की दिग्विजय अधूरी है। वह दूत के प्रस्ताव को घृणापूर्वक अस्वीकार कर देता है। अयोध्या में दूत के लौटने से पूर्व ही बाहुबलि का आतंक फैल चुका था । चतुर्थ सर्ग में दूत की बात सुनकर भरत के हृदय में भ्रातृप्रेम उदित होता है । वह बाहुबलि के पराक्रम को याद करके दूत भेजने का भी पश्चात्ताप करने लगता है जिसके फलस्वरूप वह अपने निर्मल वंश को भ्रातृवध के जघन्य पाप से कलुषित न करने का निर्णय करता है। सेनापति सुषेण उसे नाना तर्को से युद्ध के लिये प्रोत्साहित करता है। पांचवे सर्ग का नाम 'सेनासज्जीकरण' है, किन्तु इसके अधिकांश में यमक द्वारा शरत् तथा राजमहिषियों के अलंकरण का चित्रण किया गया है,। छठे से आठवें सर्ग तक क्रमशः भरत की सेना के प्रयाण तथा बाह्य उद्यान में उसके प्रथम सन्निवेश, सैनिक युगलों के वनविहार एवं जलकेलि तथा सन्ध्या, चन्द्रोदय, रतिक्रीड़ा और सूर्योदय का हृदयग्राही कवित्वपूर्ण वर्णन है जिसके अन्तर्गत प्रेमी दम्पतियों के मान-मनुहार, दूतीप्रेषण, अभिसार आदि प्रणय-प्रसंगों का रोचक निरूपण हुआ है । प्रातःकाल भरत की सेना बाहुबलि के विरुद्ध प्रस्थान करती है । नवम सर्ग में सैन्य-प्रयाण के पश्चात् योद्धाओं की प्रेयसियां वियोग-विह्वल हो उठती हैं। भरत की सेना बाहुबलि की सीमा पर, गंगा के तटवर्ती कानन में, पड़ाव डालती है। सेनापति, बाहुबलि के राज्य का वृत्तान्त जानने के लिये गुप्तचर भेजता है। सैन्यबल की ख्यापक उसकी उक्तियाँ वीरोचित दर्प से परिपूर्ण हैं। सेना-निवेश के प्रसंग में, इस सर्ग में, उत्तरदिशा के कानन, आदिदेव के विहार तथा मन्दाकिनी का चार चित्रण किया गया है । दसवें सर्ग में भरत आदिप्रभु के चैत्य में जाकर उनकी स्तुति करता है । वहीं उसकी मेंट तपस्यारत विद्याधर से होती है जिसने भरत से पराजित होने के उपरान्त वैताढ्य पर्वत के