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जैन संस्कृत महाकाव्य
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पति नमि तथा विनमि के साथ मुनित्व स्वीकार कर लिया था । ग्यारहवें सर्ग में चरों से ज्ञात होता है कि बाहुबलि भरत की अधीनता स्वीकार करने को कदापि तैयार नहीं है । उसके वीरों में अपार उत्साह है । बाहुवलि का मन्त्री सुमन्त्र उसे षट्खण्डविजेता अग्रज को प्रणिपात करने का परामर्श देता है, परन्तु विद्याधर अनिलवेग प्रतापी सेना में दैन्य का संचार करने के लिये उसकी भर्त्सना करता है । वीरपत्नियां अपने पतियों को उत्साहपूर्वक विदा करती हैं। बाहुबलि सेना एकत्र करके युद्ध के लिये तैयार हो जाता है । बारहवें सर्ग में भरत अपनी सेना को भावी युद्ध की गुरुता का भान कराता है तथा उसकी विजय में ही अपने चक्रवर्तित्व की सार्थकता मानता है' । सेनापति सुषेण उसे विश्वास दिलाता है कि युद्ध में हमारी विजय निश्चित है । जो प्रलयंकर झंझावात पर्वतों का उन्मूलन कर सकता है, उसके सामने वृक्षों की क्या बिसात ? "धैर्यवान् ही विजय प्राप्त करते हैं”, इस तथ्य को रेखांकित करने के लिये बाहुबलि, तेरहवें सर्ग में, अपने सैनिकों को उत्साहित करता है । सिंहरथ को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया जाता है । वीर योद्धा अधीरतापूर्वक रात्रि
बीतने की प्रतीक्षा करते हैं । यहां रात्रि तथा प्रभात का ललित वर्णन किया गया है । बाहुबलि हिमगिरिसदृश विशालकाय हाथी पर बैठकर युद्ध के लिये प्रस्थान करता है। चौदहवें सर्ग में दोनों सेनाएं समरांगण में उतरती हैं । स्तुतिपाठक विपक्षी सेनाओं के प्रमुख वीरों का परिचय देते हैं । पन्द्रहवें सर्ग में विपक्षी सेनाओं
तीन दिन के युद्ध का कवित्वपूर्ण वर्णन है । प्रथम दिन के युद्ध में भरत के सेनानी सुषेण ने बाहुबलि के सैनिकों को तृणवत् उच्छिन्न किया । अगले दो दिन बाहुबलि का पक्ष भारी रहता है । बाहुबलि, तथा सूर्ययशाः की भिड़न्त से देवता कांप उठते हैं । सोलहवें सर्ग में देवगण, भीषण रक्तपात से बचने के लिये भरत तथा बाहुबलि को द्वन्द्वयुद्ध के द्वारा बल परीक्षा करने को प्रेरित करते हैं। एक-दूसरे पर दोषारोपण करते हुए वे देवताओं का अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं । सतरहवें सर्ग में भरत और बाहुबलि युद्ध भूमि में आते हैं। एक-एक कर भरत दृष्टियुद्ध, शब्दयुद्ध, मुष्टियुद्ध तथा दण्डयुद्ध में पराजित होता है, किन्तु फिर भी वह पराजय स्वीकार करने को तैयार नहीं । हताश होकर वह चक्र का प्रहार करता है पर चत्र बाहुबलि का स्पर्श किये बिना ही लौट आता है। बाहुबलि क्रुद्ध होकर उसे तोड़ने के लिये मुष्टि उठा कर दौड़ता है । यह सोचकर कि इसके मुष्टिप्रहार से तीनों लोक ध्वस्त हो जाएंगे, देवता उसे रोकते हैं । बाहुबलि उसी मुष्टि से केशलुंचन कर मुनि बन जाता है" । भरत समदर्शी अनुज को प्रणिपात करता है और उसके पुत्र को अभिषिक्त कर अयोध्या
६. विश्वम्भराचक्रजयो ममापि तदेव साफल्यमवाप्स्यतीह ! भ. बा. महाकाव्य, १२.३३ १०. अपनेतुमिमाश्चिकुरानकरोद् बलमात्मकरेण स तावदयम् । वही १७.७५