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जैन संस्कृत महाकाव्य
देवताओं से ही मिलता है। पौराणिक काव्य की भांति इसके दसवें सर्ग में आदिदेव के एक स्तोत्र का समावेश किया गया है तथा अन्यत्र भी जिनधर्म की प्रशंसा की गयी है। परन्तु पौराणिकता के नाम पर उपलब्ध इन तत्त्वों के कारण भ० बा० महाकाव्य को पौराणिक रचना नहीं माना जा सकता। शास्त्रीय काव्य में भी अद्भुत की सृष्टि के लिये अलौकिक तथा अतिप्राकृतिक घटनाओं का समावेश करना सिद्धान्त में मान्य है। कवि तथा रचनाकाल
भ० बा० महाकाव्य की पुष्पिका में अथवा अन्यत्र इसके रचयिता के नाम का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । प्रत्येक सर्ग के अन्तिम पद्य में प्रयुक्त 'पुण्योदय' शब्द से कवि ने अपने जिस नाम को इंगित किया है', वह पंजिका की पुष्पिका के अनुसार पुण्यकुशल है। उससे यह भी ज्ञात होता है कि पुण्यकुशलगगि तपागच्छ के प्रख्यात आचार्य विजयसेन सूरि के प्रशिष्य और पण्डित सोमकुशलगणि के शिष्य थे। भ. बा. महाकाव्य की रचना इन्हीं विजयसेनसूरि के धर्मशासन में अर्थात् सम्वत् १६५२-१६५६ (सन् १५६५-१६०२ ई०) के बीच हुई थी। कनककुशलगणि पुण्यकुशल के गुरु भाई थे। उनके अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं । उनका रचनाकाल वि.सं. १६४१ (सन् १५८४ ई०) से प्रारम्भ होता है और वि. सं. १६६७ (सन् १६१० ई०) तक उनकी लिखी रचनाएं प्राप्त होती हैं। विजयधर्मसूरि ज्ञानमन्दिर, आगरा में उपलब्ध प्रस्तुत काव्य की पूर्वोक्त प्रति का लिपिकाल वि. सं. १६५६ (सन् १६०२ ई०) है । यह भ. बा. महाकाव्य के रचनाकाल की अधोवर्ती सीमारेखा है तथा इससे पंजिका की पुष्पिका में संकेतित काव्य की रचनावधि की पुष्टि होती है।
कथानक
षट्खण्ड विजय के फलस्वरूप भरत चक्रवर्ती पद प्राप्त करता हैं । भरत को ज्ञात होता है कि उसके अनुज तक्षशिलानरेश बाहुबलि ने उसका आधिपस्य स्वीकार नहीं किया है । इसीलिये चक्र ने आयुधशाला मे प्रवेश नहीं किया है । वह बूत के द्वारा बाहुबलि को प्रणिपात करने का आदेश देता है। यहीं से भ. बा. महाकाव्य
५. संसारतापातुरमानवानां जिनेद्रपाबा अमृतावहा हि । भ. बा. महाकाव्य, १०६०
सुखीभवेत् स एवात्र हि यो जिनार्चकः । वही, १३१५७ ६. उदाहरणार्थ- क्षितिपतिमवनम्यात्यन्तपुण्योदयाढ्यम् । ११७६ ७. 'इति श्रीतपागच्छाधिराजश्रीविजयसेनसूरीश्वरराज्ये पं० श्रीसोमकुशलगणि शिष्य
पुण्यकुशलमणिविरचिते भरतबाहुबलिमहाकाव्ये। ८. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ६, वाराणसी, १९७३, पृ. २६१-२६२