________________
१५४
जैन संस्कृत महाकाव्य
औपचारिकता के बिना, सीधा कथावस्तु का प्रवर्तन करता है'। पुण्यकुशल ने भरत तथा बाहुबलि के जिस प्रकरण को काव्य का आधार बनाया है, वह, अपने उदात्त पर्यवसान के कारण, जैन साहित्य में अतीव समादृत है और इसी कारण, प्रारम्भ से, कवियों का उपजीव्य रहा है । वसुदेवहिण्डी के प्राचीनतम निरूपण के अतिरिक्त जैन धर्म की दोनों धाराओं के प्रतिनिधि ग्रन्थों-आदिपुराण तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित—में इसका विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। इतिव्रत की प्रकृति तथा उद्देश्य के अनुरूप भ० बा० महाकाव्य का अंगीरस वीर है। काव्य की रसवत्ता को घनत्व प्रदान करने के लिथे शृंगार, रौद्र तथा शान्त रस का प्रगाढ पल्लवन किया गया है। काव्य में शृंगार रस की तो इतनी तीव्र व्यंजना है कि इसे न्यायपूर्वक अंगीरस का समकक्ष माना जा सकता है। विविध गुणों से सम्पन्न चक्रवर्ती भरत काव्य के निर्विवाद नायक हैं, परन्तु बाहुबलि भी कथावस्तु के ताने-बाने में इस प्रकार अनुस्यूत हैं तथा उनका व्यक्तित्व नायकोचित गुणों से ऐसे युक्त है कि उन्हें किसी भी तरह नायक के पद से वंचित नहीं किया जा सकता। एकाधिक पात्रों को नायक मानने की साहित्य में प्राचीन परम्परा है । भ० बा० महाकाव्य की रचना जैन दर्शन के मूलभूत आदर्श "वैयक्तिक स्वतन्त्रता" की प्रतिष्ठा के महान् उद्देश्य से की गयी है। बाहुबलि राजपाट, भोगाकांक्षा आदि सब कुछ छोड़ देता है किन्तु पराधीनता उसे कदापि सह्य नहीं है। पारिभाषिक शब्दावली में यह अर्थ पर धर्म की विजय है। महाकाव्य की बद्धमूल परिपाटी के अनुरूप भ० बा० महाकाव्य में दूत-प्रेषण, सैन्यप्रयाण, युद्ध, वनविहार, जलक्रीड़ा, सूर्यास्त, प्रभात, षड्ऋतु आदि वस्तु-व्यापार के विस्तृत एवं अलंकृत वर्णन पाये जाते हैं। इसकी भाषा में जो लालित्य, सौष्ठव तथा प्रसाद है, वह अन्यत्र कम दृष्टिगोचर होता है। वस्तुत: भ० बा० महाकाव्य की एक उल्लेखनीय विशेषता इसकी प्रसादपूर्ण प्रांजल भाषा है। भाषा की इस प्रांजलता ने इसकी शैली में प्रशंसनीय चारुता तथा महाकाव्योचित भव्यता का संचार किया है । काव्य का शीर्षक मुख्य पात्रों पर आधारित है, जो कथावस्तु में उनके समान महत्त्व तथा गौरव का द्योतक है । सर्गों के नामकरण, छन्दों के विधान आदि स्थूल तत्त्वों में भी पुण्यकुशल शास्त्र का अनुगामी है।
भ० बा० महाकाव्य में, कथा-रेखाओं को समन्वित करने के लिये नाट्यसन्धियों का यत्किचित् विनियोग हुआ है। प्रथम दो सर्गों में दूतप्रेषण तथा दूत के ३. विमृश्य दूतं प्रजिघाय वाग्मिनं ततौजसे तक्षशिलामहीभुजे। भ० बा० महाकाव्य,
४. सम्वत् १२४१ में लिखित शालिभद्रसूरि का भरतेश्वरबाहुबलिरास, इस विषय
पर आधारित प्राचीनतम राजस्थानी काव्य है।