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भरतबाहुबलिमहाकाव्य : पुण्यकुशल
कविवर पुण्यकुशल का भरतबाहुबलिमहाकाव्य (भ० बा० महाकाव्य) . अपने बहुविध गुणों, स्निग्ध शैली तथा माघोत्तर इतिवृत्त-परम्परा की अनुपालना के कारण समग्र काव्यसाहित्य की गौरवपूर्ण रचना है। भाबा० महाकाव्य की पंजिकायुक्त एक पूर्ण प्रति तेरापन्थ संघ के संग्रह में थी। उस प्रति का जो भाग आज उपलब्ध है, वह ग्यारहवें सर्ग के मध्य में ही समाप्त हो जाता है । द्वितीय सर्ग का उत्तरार्द्ध तथा समूचा तृतीय सर्ग भी प्रति में प्राप्य नहीं है। इस काव्य की एक त्रुटित प्रति, श्वेताम्बर भण्डार, विजयधर्मलक्ष्मी ज्ञानमन्दिर, आगरा में उपलब्ध है। इस प्रति की लिपि दुर्बोध तथा पाठ बहुधा खण्डित तथा भ्रष्ट है। भ० बा० महाकाव्य को पुनरुज्जीवित करने का श्रेय प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान्, मुनि नथमल जी (अब युवाचार्य महाप्रज्ञ) को है, जिन्होंने संघीय प्रति तथा आगरा भण्डार की उक्त प्रति की दो प्रतिलिपियों के आधार पर, सम्वत् २००२ में, इस रोचक काव्य का उद्धार किया था।' मुनिश्री की स्वलिखित २८ पत्रों की प्रति ही भरतबाहुबलिमहाकाव्य की रक्षा तथा प्रकाशन का आधार बनी है।
अठारहों सर्गों के इस ललित-मधुर काव्य में आदि चक्रवर्ती भरत तथा उनके प्रतापी अनुज बाहुबलि के जीवन के एक प्रसंग-युद्ध तथा कैवल्यप्राप्ति--को काव्योचित अलंकरण के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह वर्णनात्मकता प्रबन्धत्व का पर्याय नहीं है, पर भ० बा० महाकाव्य का समूचा सौन्दर्य एवं महत्त्व इन्हीं वर्णनों पर आश्रित है । ये वर्णन काव्यप्रतिभा के उन्मेष हैं जिससे सारा काव्य अद्भुत सरसता से सिक्त है। भ० बा० महाकाव्य का महाकाव्यत्व
शास्त्रीय लक्षणों के संदर्भ में भ० बा० महाकाव्य की सफलता असन्दिग्ध है । कुमारसम्भव, शिशुपालवध आदि प्राचीन काव्यों की भांति इसका आरम्भ वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण से हुआ है। काव्य का प्रथम पद्य, किसी पृष्ठभूमि अथवा १. मुनिनथमल: प्रतिमिमां लिपीकृतवान् द्विसहस्राब्दे व युत्तरे। पूरकं च लिखितं ___२००६ फाल्गुन मासे पूर्णिमायां होलीपिने लूणकणसरे ।-अन्त्य टिप्पणी। २. जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान), १९७४ ई०