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जैन संस्कृत महाकाव्य
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उनकी मित्रता तथा विश्वास की प्रगाढता का प्रतीक है। वस्तुतः वह सम्राट् की
तीसरी आंख है (१३.१२०) ।
अन्य पात्र
काव्य नायक हीरविजय का पिता कुरां प्रह्लादनपुर का धनी व्यापारी है । लक्ष्मी विष्णु की भांति उसकी शाश्वत सहचरी है ( २.१३) । वह उदार तथा दानशील व्यक्ति है तथा दान में ही धन की सार्थकता मानता है । उसके पुत्र- वात्सल्य की मधुर झांकी काव्य में दिखाई देती है । उसकी रूपवती पत्नी नाथी के सौन्दर्य का सविस्तार वर्णन किया गया है ।
विजयसेन आचार्य हीरविजय का पट्टधर है। उसके गुणों की ख्याति सम्राट् अकबर तक पहुँचती है जिससे वह भानुचन्द्र के उपाध्याय पद की नन्दिविधि के अनुष्ठान के लिये उसे लाहौर बुलाता है तथा उसके वाक्कौशल से प्रसन्न होकर उसे 'सवाई' की उपाधि से विभूषित करता है । वह गुरुभक्त शिष्य है । गुरु की मृत्यु से उसे मर्मान्तक वेदना हुई ।
भाषा आदि
देवविमल ने एक श्लिष्ट पद्य में अपनी काव्य-सम्बन्धी मान्यता का संकेत किया है। उसके अनुसार प्रसाद, कान्ति, सुरुचिपूर्ण अलंकार, मनोरम पदरचना, संयत श्लेष तथा विवेकपूर्ण अप्रस्तुतविधान काव्य की उत्कृष्टता के आधार हैं । २७ हीरसौभाग्य में ये सभी गुण यथोचित मात्रा में विद्यमान हैं। हीरसौभाग्य की विशिष्टता का मुख्य कारण इसकी प्रासादिकता है। सुबोधता प्रसादगुण की आधारभूमि है। हीरसौभाग्य में कोई ऐसा स्थल नहीं हैं, जिसे कष्टसाध्य अथवा दुर्बोध कहा जा सके । नैषध से अत्यधिक प्रभावित होने पर भी देवविमल ने उसकी भाषा की कृत्रिमता तथा शैली की ऊहात्मकता का अनुकरण नहीं किया, यह उसकी सुरुचि का प्रबल प्रमाण है। हीरसोभाग्य में नैषध के कतिपय विद्वत्तापूर्ण प्रयोग ग्रहण किये गये हैं" किन्तु कवि ने पाण्डित्य की गांठें लगा कर काव्य को दुर्भेद्य नहीं बनाया है । हीरसौभाग्य में इसीलिए प्रसाद तथा कान्ति का मधुर समन्वय है । काव्य में प्रसादगुण के अनेक उदाहरण मिलेंगे । हीरविजय के ब्राह्मण गुरु का यह शब्दचित्र उल्लेखनीय है, जिसमें भाषा की प्रासादिकता तथा यथातथ्य चित्रण के
२७. प्रसादकान्ती दधती सुवर्णालंकारिणी रम्यतमक्रमा च ।
संश्लेषवक्षाप्रतिमोपमानश्रीः श्लोकमालेव सुरी चकासे ॥ वही, ८.२७
२८. देखिये - १.६,१.१३१,१३५, ३.१०५, ४.१०८, ५.७, ३५, ८.७०. ६.६६, १०.४०, १३.१५५,१४.२०, आदि आदि ।