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जैन संस्कृत महाकाव्य
काव्य की स्वोपज्ञ टीका में कवि ने इन विषयों से सम्बन्धित ग्रन्थों की विस्तृत सूची दी है । विद्यालयों में अवकाश की क्या व्यवस्था थी, इसका भी काव्य से संकेत नहीं मिलता । प्रतिपदा को न केवल अवकाश रहता था अपितु उस दिन अध्ययन करना नितान्त वर्जित था क्योंकि प्रतिपदा को विद्यानाशिनी माना जाता था ।
दर्शन
आचार्य हीरविजय, शेख अबुल फ़जल तथा सम्राट् अकबर की धर्म चर्चा के अन्तर्गत जैन तथा इस्लाम दर्शन के कतिपय सिद्धान्तों का रोचक प्रतिपादन हुआ है । इस्लाम दर्शन के अनुसार मृत यवन का शव प्रलयपर्यन्त भूमि के गर्भ में पड़ा रहता है । प्रलय के दिन खुदा स्वयं प्रकट होकर, उनके पुण्य-पाप के अनुरूप, उन्हें यथोचित फल देता है । वह पुण्यवान् व्यक्तियों को स्वर्ग भेजता है, जहां वे नाना सुख भोगते हैं । पापियों को वह दोजख में धकेल देता है, जहां उन्हें, कुम्भकार के पात्रों की भांति अनिर्वचनीय यातनाएँ सहनी पड़ती हैं" ।
इस महत्त्वपूर्ण विषय के सम्बन्ध में जैन दर्शन का दृष्टिकोण बिल्कुल भिन्न है । जैन दर्शन में बांझ के पुत्र की भांति ईश्वर नामक कोई चीज़ नहीं है । संसार अपने कर्म से जन्मता है । इसका न कोई कर्त्ता है, न कोई हर्त्ता । ईश्वर को मानव के सुख-दुःख का निर्माता तथा जगत् का स्रष्टा मानना अजा के दोहने के समान है । अतः मानव के भाग्य का निर्णय प्रलय के उसके कर्म उसका निर्धारण करते हैं" ।
गलस्तन से दूध दिन नहीं होता ।
हीरसौभाग्य में देव, गुरु तथा धर्म के स्वरूप का भी सुन्दर विवेचन हुआ है। वास्तविक गुरु वह है, जिसके दर्पण के समान निर्मल ज्ञान में तीनों लोक प्रतिभासित होते हैं । गुरु संसार के समस्त परिग्रहों को इस प्रकार छोड़ देता है, जैसे हंस कलुषित जल को । वह कृपारस से परिपूर्ण हृदय में प्रबोध का रोपण करता है । जिन के मुखकमल से निस्सृत धर्म ही यथार्थ धर्म है । कल्पवृक्ष के अंकुर की तरह वह सब दुःखों का क्षय करता है । ये तीनों मनुष्य को जन्म-मरण के कुचक्र से छुटकारा दिलाकर उस चरम लक्ष्य तक पहुंचाते हैं, जिसे 'अपुनर्भव' कहते हैं" ।
इसके अतिरिक्त हीरसौभाग्य में तार्किकों की उपमानविधि की अव्यभिचारिता ( ३.८०), जैमिनीय दर्शन में देवों के शरीर की अमान्यता ( ५.७३ ) तथा बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद ( ५.२१ ) का भी उल्लेख है । हीरसौभाग्य के विवरण की प्रामाणिकता
सौभाग्य में वर्णित हीरविजय के जीवन की प्रायः सभी प्रमुख घटनाओं की पुष्टि उनके मरणस्थल उन्नतपुर (ऊना) में उत्कण शिलालेख से होती है । अन्य ३७. वही ६.६२-६५, ४।२१ और उसकी टीका 'प्रतिपत्पठनाशिनी' इत्युक्तेः । ३८-४०. क्रमशः वही, १३.१३७-१४२, १३.१४५-१५०, १४.३५