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हीरसौभाग्य : देवविमलगणि
कारण कर्मकाण्डी ब्राह्मण का व्यक्तित्व साकार हो गया है ।
मृडमूर्धनिवाससौहृदान्मिलितुं जह्न सुतामिवागताम् । अकार्धवितुं ललाटिकां वहमानो हरिचन्दनोद्भवाम् ।। ६.५२ उपवीतमुरःस्थलान्तरे कलयंश्चन्दनचन्द्रर्चाचितः । दमनो मदनस्य भूतिमानिव वैकक्षितकुण्डलीश्वरः ।। ६. ५३ शिववाङ्मयवाधिपारगोऽनिशषट्कर्मरतो व्रतान्वितः ।
वपुरभ्युपगत्य वर्णनामिव धर्मः प्रकटीभवन्नयम् ॥ ६.५४
नैषध की भाँति हीरसौभाग्य की मुख्य विशेषता उसकी पदशय्या की मनोरमता है । यही गुण है जो अकेला हीरसौभाग्य को उच्च पद पर प्रतिष्ठित करता है । निस्सन्देह देवविमल की रचना में अनुप्रास का उत्कृष्ट चमत्कार है । उसके प्रायः प्रत्येक पद्य में पदलालित्य विद्यमान है, जो भाषा प्रयोग में कवि के विवेक एवं सुरुचि को व्यक्त करता है । 'हीरसौभाग्ये पदलालित्यम्' उक्ति उतनी ही सार्थक है, जितनी 'दण्डिनः पदलालित्यम्' अथवा 'नैषधे पदलालित्यम्' । हीरसोभाग्य की विशेषता यह है कि इसमें प्रत्येक रस तथा प्रकरण के लिए उपयुक्त पदलालित्य मिलता है। हीरविजय के संयमपूर्ण आचरण के निरूपक प्रकरण का पदलालित्य उतना ही चित्ताकर्षक तथा मधुर है, जितनी वीररसोचित पदावली की मनोरमता । श्रमिक उदाहरण देखिये :
श्रेणीं सतामिव विमुक्तसमग्रदोषां वल्भाममी विदधते सकृदेव देव । आराधयन्ति विधिवद्विषूतावधाना योगं विघू तवनिताद्यखिलानुषंगम् ॥
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१३.२०७
यत्प्रस्थितौ रथहयद्विपपत्तिवींखा प्रोत्खातपांसुपिहिताखिलदिङ मुखेषु । आक्रन्दि चक्रमिथुनंरथ पांसुलाभिः प्राह्लादि पल्लवितमन्तरुलूकलोकैः ॥
१०.१५
देवविमल के पदलालित्य का आधार अनुप्रास के अतिरिक्त उसकी वैदर्भी रीति है । वैदर्भी रीति में अत्यल्प समासान्त पद प्रयुक्त करने का विधान है। हीरसौभाग्य में लम्बे समासों का अभाव है । अकबर की दिग्विजय के प्रसंग में भी, जहां दीर्घं समासान्त पद ओजोगुण की सृष्टि के लिए सर्वथा न्यायोचित होते, कवि ने इस लोभ का संवरण किया है । कहने को तो श्रीहर्ष भी अपनी रीति को वैदर्भी बताते हैं परन्तु नैषध में गौडी और पांचाली की अधिकता उत्तरवर्ती कवियों में केवल पण्डितराज जगन्नाथ में देवविमल जैसा पदलालित्य मिलता है ।
नैषध की पाण्डित्यपूर्ण भाषा तथा क्लिष्ट शैली के प्रति देवविमल की रुचि नहीं है । परन्तु व्याकरण में उसकी गहरी पैठ है और उसने अपने काव्य में अनेक