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जैन संस्कृत महाकाव्य
धनाढ्य पिता का पुत्र होने के नाते उसने सुख-सुविधाएं देखी हैं तथा वैभव भोगा है, किन्तु वह उनकी बाढ में बहा नहीं है। जीवन की अनित्यता तथा विषयों की निस्सारता से विश्वस्त होकर वह उस युवति का आंचल पकड़ता है, जो वैराग्यवान् से अधिक अनुराग करती है तथा पुरुष की शाश्वत सहचरी है। प्रलोभन पर निष्ठा की विजय हुई । प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् हीरविजय के जीवन का गौरवशाली अध्याय आरम्भ होता है । अब उसका जीवन धर्म की धुरी पर घूमता है। अपनी चर्या, साधना तथा गुणों के कारण वह शीघ्र आचार्य का गौरवमय पद प्राप्त करता है। शासनदेवी भी उसकी पात्रता घोषित करती है। हीरविजय आहत धर्म के सिद्धान्तों तथा मर्यादाओं का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं जिससे वे शरीरधारी साधुधर्म प्रतीत होते हैं (११.१६) । काव्य में उनकी समत्वबुद्धि, वीतरागता तथा लोकोपकारी गुणों की लम्बी तालिका दी गयी है (१०.१००-११५) । इन दो लघु पद्यों में तो कवि ने उनका समग्र व्यक्तित्व समाहित कर दिया है ।
विरागे नानुरागे च तोषे दोषे न भूविभो । मुक्तौ न सुध्रुवां भुक्तौ चेतश्चिन्वन्त्यमी क्वचित् ॥१२.२११ भूलोके भोगिलोके च स्वर्लोके स न कश्चन । आवाभ्यामुपमीयते योगिनां मौलिनामुना ॥१३.२१२
आचार्य हीरविजय दर्शनशास्त्र के सुधी विद्वान् हैं । जैन दर्शन ही नहीं, अन्य दर्शनों में भी उनकी गहरी पैठ है (दर्शनेषु सर्वेषु शेखर इव, १०.८८)। शेख अबुल फ़जल जैसा दार्शनिक भी उनकी तार्किक बुद्धि तथा दार्शनिक पाण्डित्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । अकबर के साथ धर्म-चर्चा करते समय वे जैन दर्शन का इस कुशलता तथा सूक्ष्मता से प्रतिपादन करते हैं कि सम्राट, लगभग सार्वजनिक रूप से, उनकी इन शब्दों में प्रशंसा करता है।
मया विशेषात्परदर्शनस्पृशो गवेषिताः शेख न तेषु कश्चन । व्यलोकि वाचंयमचक्रिणः सदृङ् मृगेषु कोऽप्यस्ति मृगेन्द्रसंनिभः ॥१४.७१
हीर विजय के चरित्र की प्रमुख विशेषता, जिससे उनका सारा व्यक्तित्व कुन्दन की भाँति चमक उठता है, उनकी निस्स्पृहता तथा परदुःखकातरता है। उन्हें जीवन में एक तृण भी ग्राह्य नहीं है। वे अकबर के ग्रन्थसंग्रह जैसे सात्त्विक उपहार को भी स्वीकार नहीं करते। अकबर के बार-बार आग्रह करने पर वे सम्राट को जीवहत्या का निषेध, कर-समाप्ति आदि लोकोपयोगी कार्य करने को प्रेरित करते हैं। अकबर उनकी निरीहता तथा करुणा से गद्गद् हो जाता है। सचमुच यह त्यागवृत्ति की पराकाष्ठा है। मुगल सम्राट् उन्हें जगद्गुरु' की महनीय उपाधि देकर उनकी चारित्रिक एवं धार्मिक उपलब्धियों का अभिनन्दन करता है। सत्ता के मद में चूर