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जैन संस्कृत महाकाव्य
ज्ञात न हो कि न्याय दर्शन में मन को परमाणु माना गया है। शिशु हीर में सामुद्रिक लक्षणों का पूर्ण सामञ्जस्य था अर्थात् उनमें परस्पर विरोध नहीं था जैसे नैयायिक सदुपमान ( सब प्रकार से योग्य उपमान) में व्यभिचारि-भाव स्वीकार नहीं करते ( ३.८० ) । अकबर का आदेश था कि हीरविजय सूरि को गुजरात से आते समय लेश मात्र भी कष्ट न हो जैसे ब्रह्म में लीन होने पर आत्मा को तनिक भी दुःख प्राप्त नही होता" । यह उपमान जैन दर्शन पर आधारित है। सीकरी जाते हुए हीरविजय ने शाखापुर में निवास किया जैसे चरम शरीरी जीव केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी प्राप्त करने के लिये पहले क्षपक श्रेणी का आश्रय लेता है ( १३.६३) । 'महानन्दयुक्ताश्च मुक्तात्मवत्' (११.३२) में मुक्तात्मा की अखण्ड आनन्द की स्थिति का संकेत है । ज्योतिष पर आधारित उपमान कवि को विशेष प्रिय हैं । आचार्य हीर विजय ने वर्षाकाल के पश्चात् उग्रसेनपुर (आगरा) से आकर फतेहपुर सीकरी को पुनः ऐसे विभूषित किया जैसे बृहस्पति मिथुन राशि से उच्चताप्रद कर्क राशि में प्रवेश करता है (१४.६३) । हीरसूरि के आगमन की सूचना देने के लिये स्थानसिंह शेख अबुल फ़जल के पास आया जिस प्रकार बुध सूर्य के समीप आता है ( १३.१२१) ! इस उपमा का महत्त्व तभी समझा जा सकता जब यह विदित हो कि ज्योतिष शास्त्र में बुध सूर्य का मित्र माना गया है । चन्द्रमा अमावस्या को सूर्य के पास जाकर उससे तेज प्राप्त करता है । इस ज्योतिष के सिद्धान्त का संकेत दो बार किया गया है (५.२५,१३.११८ ) । दिल्ली ने अपने वैभव से अभिभूत किया जैसे काली ने महिषासुर को पराजित करके प्रहार किया था ( १०.६) ।
पाताल लोक को ऐसे उसके सिर पर पाद
लेने का
नाथी के
(२.३७) ।
अस्त्रों से
देवविमल के दूसरे अप्रस्तुत वे हैं, जो यद्यपि शास्त्रीय नहीं हैं किन्तु इनमें afa ने दूर की कौड़ी फेंकी है । कामदेव ने शंकर से पूर्व वैर का बदला निश्चय किया है । उसने शम्भु के पांच मुखों पर प्रहार करने के लिये हाथ रूपी तरकश में अंगुलियों के पांच तीर सुरक्षित रख दिये हैं परन्तु उसने शीघ्र अनुभव किया कि शंकर को उन तीरों अथवा अन्य पराजित करना सम्भव नहीं है । अतः उसने नाथी तथा शासन देवी के रूप एक अमोघ चक्र का निर्माण किया है ( २.४७, ८.४४ ) । चन्द्रखण्ड मेरे साथ होड़ करने की धृष्टता करता है, इससे क्रुद्ध होकर शासन देवता के ललाट ने उससे लड़ने के लिये भौंहों की तलवार उठा ली है। भौंह के लिये 'करवाल' उपमान नवीन होने पर भी अटपटा है । आकाश में छिटके तारे ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो २६. असातस्य लेशोऽपि तेनैकपद्यां यथावाप्यते नात्मना ब्रह्मणीव । हीर सौभाग्य,
नितम्ब के
११.१७