________________
जैन संस्कृत महाकाव्य
१४०
का है । अप्रस्तुतों की विवेकपूर्ण योजना के कारण हीरसौभाग्य का वर्णन अतीव रोचक तथा कवित्वपूर्ण है । देवविमल के भी कुछ अप्रस्तुत क्लिष्टता से मुक्त नहीं हैं किन्तु वे वायवीय नहीं है। एक-एक वर्ण्य अंग के लिये अनेक अप्रस्तुत जुटाने का देवविमल का कौशल सौन्दर्यचित्रण में भी दिखाई देता है । इसी कौशल के कारण नाथ शृंगार-नट की जंगम रंगशाला ( २.१६) तथा शासनदेवी काम की आयुधशाला (८.१६७) प्रतीत होती है ।
देवविमल के अधिकतर अप्रस्तुत बहुत उपयुक्त तथा मार्मिक हैं। उनसे वर्णनीय अंगों का सौन्दर्य तत्काल प्रस्फुटित हो जाता है । कतिपय उदाहरण पर्याप्त होंगे । नाथी के ललाट पर लहराती अलक, विकसित कमल के भ्रम से उस पर बैठा भौंरा है ( २.१८ ) । उसकी नासिका के ऊपर शोभायमान भ्रूयुग्म विश्वविजय के बाद काम द्वारा उसकी शारीरिक कान्ति के सागर में स्थापित यश: स्तम्भ है जिस पर ध्वजा फहरा रही है (२.२२) । उसकी स्वर्णाकार पीठ, जिसमें पुष्प - खचित केशराशि प्रबिम्बित है, ऐसी प्रतीत होती है मानो सुमेरु पर्वत की शिला हो जिसमें ग्रहांकित गगन वीथि की छाया पड़ रही है ( २.३८ ) । शासनदेवी के चरणों की लालिमा पादवन्दना करते समय देवांगनाओं की मांग से भरता सिन्दूर है ( ८.१६) । उसका जघन ( पेडू ), रति का इस भय से निर्मित गुह्य गृह है कि कहीं शम्भु काम की भांति मुझे भी भस्म कर दे (८.४३ ) । उसकी नाभि उसके अनुपम लावण्य के जलाशय में विकसित कमलिनी है, जो सघन क्रान्ति के मकरन्द से सान्द्र है तथा जिस पर रसिकों की कामुक दृष्टि थिरक रही है ( ६.५१ ) । उसकी कटि ( मध्य भाग) अपने शत्रु शंकर को भस्म करने के लिये काम द्वारा निर्मित अल्पाकार तपोवेदी है ( ८.५४ ) । उसके कान ऐसे लगते हैं मानों ब्रह्मा ने रति और प्रीति के साथ भूलने के लिये काम के झूले बनाये हों (८.१३९) ।
इनके विपरीत देवविमल ने सौन्दर्य-चित्रण में कुछ ऐसे अप्रस्तुत प्रयुक्त किये हैं, जिन्हें हम दूरारूढ कह सकते हैं । वे श्रीहर्ष के उपमानों की तरह भावाभिव्यक्ति में बाधक तो नहीं है किन्तु उनमें क्लिष्टता अवश्य है, जो कहीं-कहीं अटपटेपन की सीमा . तक पहुंच जाती है । कुछ उदाहरणों से बात स्पष्ट हो जाएगी । देवविमल युवक हीरकुमार के लाल होठों का वर्णन कर रहे हैं । कवि का विश्वास है कि कुमार का नासिका रूपी शुक उसके कर्णपाश में फंस कर छटपटा रहा है । उसकी चोंच से बिम्ब फल सहसा छूट गया है । कुमार के मुख तक पहुंच कर वही उसका होंठ बन
२४. यस्य प्रशस्ययशसः श्रुतिपाशमध्यनिष्पातिनत्र शुकचंचपुटात्कथंचित् ।
बिम्बीफलं विगलितं स्खलितं च वक्त्र पद्मोदरे किमु रदच्छदनीबभूव ॥ वही, ३.६४