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जैन संस्कृत महाकाव्य
चूं व्याकरण की घु संज्ञा प्रतीत हो पर उसकी कुछ कल्पनाएं अटपटी-सी हैं । सूर्य के अर्द्ध मण्डल को चण्डी के सालक्तक पादप्रहार से लाल, शंकर की चंद्रकला के रूप में कल्पित करना (७.२२), गाढान्धकार को विरही चक्रवाक युगलों के विषाद की धूमरेखा मानना (७.५१), तारों की मुण्डमाला से तुलना करना (७.६०) तथा सूर्य की प्रभा को हरि (सिंह, भानु) द्वारा मारे गए अंधकार रूपी हाथियों के गण्डस्थलों से प्रवाहित रक्त की धारा मानना (६.६८) निस्सन्देह सहज नहीं है।
प्रकृति-चित्रण में देवविमल ने जिस विवेक से अनूठे अप्रस्तुतों की कल्पना की है, वही कौशल उसने प्रकृति को मानवी रूप देने में प्रदर्शित किया है । सप्तम सर्ग में प्रकृति के मानवीकरण की झड़ी-सी लग गयी है। इस दृष्टि से सूर्यास्त का वर्णन विशेष उल्लेखनीय है । इस प्रसंग में सूर्य को पिता का रूप दिया है । मरणासन्न पिता जैसे अपने हृदयहीन पुत्रों की उदासीनता के कारण अपनी असहायता पर क्रोध से झंझला उठता है, उसी प्रकार विपत्ति में सन्तान-तुल्य किरणों को साथ छोड़ता देख कर सूर्य क्रोध से लाल हो गया है। अन्यत्र उस पर लम्पट के आचरण का आरोप किया गया है, जो अपनी पतिव्रता पत्नी को छोड़कर, अन्य किसी स्त्री के पास चला जाता है (७.१७) । इसी प्रकरण में कमलिनी तथा भ्रमरों को पद्मिनी नायिका तथा मदमाते युवकों की चेष्टाओं में रत अंकित किया गया है। जिस प्रकार युवक किसी कामिनी को भोग कर छोड़ देते हैं, उसी तरह संध्या के समय भ्रमर कमलिनी के कोशकुचों का मर्दन तथा पत्राधर का रसपान करके रतिक्लांत कमलिनी को छोड़ कर
भाग रहे हैं।
सरोजिनी कोशकुची निपीडयाधरच्छदे पीतरसैः स्ववातात् । मीलन्मुखी कम्पमिषान्निषेधी जहे महेलेव युववद्विरेफैः ॥७.२६
रात्र्यंत के मनोरम वर्णन में पूर्व दिशा को गर्भिणी के रूप में चित्रित किया गया है। जैसे गर्भभार से श्लथ स्त्री आभूषण आदि उतार देती है और उसका मुंह पीला पड़ जाता है, उसी प्रकार पूर्वदिशा, नवोदित सूर्य को गर्भ में धारण किए हुए है, उसने नक्षत्र रूपी भूषण त्याग दिये हैं और उसके मुखमण्डल पर पीतिमा छा गयी है।
प्रपूर्णपाथोरहबन्धुभिणी तनूभवत्तारकतारभूषणा। हरेहरित्पाण्डुरिमाणमानने बित्ति मत्तेभगतेव सुस्थिते ॥ २.११२
प्रस्तुत पंक्तियों में पृथ्वी पर प्रेयसी का अध्यारोप किया गया है, जो चिरप्रवास से लौटे प्रियतम पावस को देखकर रोमांचित हो गयी है तथा पपीहे के मधुर २२. विनियोगेन निजास्तपश्यान्पुत्रानिवोत्संगजुषः स्वरश्मीन् ।
दृष्ट्वा यियातूंस्तदुहीतकोपादिवारणीभूतमवारणेन ॥हीरसौभाग्य, ७.१४४