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हीरसौभाग्य : देवविमलगणि
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अपने शिविर के लाल खेमे गाड़ दिए हैं (७.३५), अथवा रात्रि रूपी नायिका ने अपने 'पति चन्द्रमा का स्वागत करने के लिए आकाश में कुंकुम के मांगलिक थापे लगाए हैं (७.३६), अथवा अपने स्वामी सूर्य की सायंकालीन दुर्दशा देखकर दिशाओं की वधुओं ने दु:खवश मुह का पान आकाश में थूक दिया है (७.४१) । सान्ध्यराग तथा नवोदित अंधकार का अंतमिलन ऐसा प्रतीत होता है मानो समुद्र में प्रवाललता पर कृष्णवल्लरी के अंकुर फूट गए हों (७.४३), अथवा रक्तकमल पर मकरन्द पान करने के लिए भ्रमर बैठे हों (७.४४) अथवा देवताओं ने अभ्रमार्ग पर कुंकुम तथा कस्तूरी का मिश्रित द्रव छिड़क दिया हो (७.४५) । तारों तथा चन्द्रमा के उदय के वर्णन में भी अप्रस्तुतों का यही वैभव दिखाई देता है। आकाश में झिलमिलाते तारे, रात्रि द्वारा प्रियतम चन्द्रमा के स्वागत में बिखेरे पुष्प प्रतीत होते हैं (७.५५), अथवा पृथ्वी और आकाश में व्याप्त गहन अंधकार को लीलने को कटिबद्ध चंद्रमा की सेना तारों के रूप में गगन में फैल गई हो (७.५६), अथवा वे दिननायक के साथ चिरकाल तक रमण करती हुई आकाशलक्ष्मी के स्वेदकण हों (७.५७) । सम्पूर्ण चंद्रमण्डल कवि की कल्पना में ऐसा पूर्ण विकसित श्वेतक मल है, जिसके बीच मधुपान के लिए आतुर भ्रमर बैठा हो (७.७२), अथवा वह व्रतिराज हीरविजय की सच्चरित्रता से विस्मित ब्रह्मा के हाथ से गिरा हुआ कमण्डल हो (७.७३) ।
नवें सर्ग में निशावसान तथा प्रभात का वर्णन भी अप्रस्तुतों की मार्मिकता से परिपूर्ण है। चन्द्रमा पश्चिमी सागर में डूब गया है। कवि को लगता है कि उसने अपने शाश्वत शत्रु राहु को बांधने के लिए, पाश की खोज में, जलदेवता वरुण से मित्रता कर ली है (६.३७)। प्रातःकाल तारे अस्त हो गए हैं। कवि की कल्पना है कि प्रभात के भूखे पक्षी ने तारों के चावल चुग लिए हैं । (७.४३) सान्ध्यराग की भांति प्रातःकालीन लालिमा के वर्णन में भी अतीव सटीक उपमान प्रयुक्त किए गए हैं । अपनी प्रिया, प्राची दिशा, को भोगकर स्वर्ग में जाते हुए इन्द्र ने आकाश में पान थूक दिया है। उसी की लालिमा उषाराग के रूप में फैल गयी है (७.५६) अथवा देवताओं की विलासशय्याओं से गिरे कमलदलों ने आकाश को लाल बना दिया है (७.६०) । प्रातःकालीन नवोदित सूर्य पूर्व दिशा का कुण्डल प्रतीत होता है, जो उसके कपोल के कुंकुम से भीग गया है (७.६१), अथवा ऐरावत ने मदवश वप्रक्रीड़ा करते-करते गैरिक पर्वत की एक शिला आकाश में उछाल दी है (७.६३) ।
प्रकृति-चित्रण में देवविमल के दूसरे अप्रस्तुत वे हैं, जिन्हें हम दूरारूढ कह सकते हैं । श्रीहर्ष की तुलना में तो उन्हें भी सहज कहा जाएगा किन्तु स्वयं देवविमल के अन्य अप्रस्तुतों की अपेक्षा उनमें ऊहात्मकता अधिक है। उसने इतनी दूर की कौड़ी तो नहीं फैकी कि सूर्य की किरणें उसे स्वरित के ऋजु चिह्न अथवा कबूतरों की घुटर