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जैन संस्कृत महाकाव्य रोहण पर विजयसेनसूरि का विलाप हृदय को करुणा करने में समर्थ है। किन्तु देवविमल का करुणरस मार्मिकता से रहित है। वह अधिकतर क्रन्दन तथा गुणस्मरण तक सीमित है । प्रस्तुत पद्य में यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है । ___ उच्छिन्नः सुरभूरुहोऽप्यपगता 'स्वर्धामधेनुः पुन
भग्नः कामघटो मणिः सुमनसां चूर्णीबभूव क्षणात् । दग्धा चित्रलता गतः शकलता हा दक्षिणावर्तभृत्,
कम्बुः स्वर्गिगृहं गते त्वयि गुरौ श्रीहीरसूरीश्वरे ॥१७.२०३ प्रकृतिचित्रण
हीरसौभाग्य के विराट् फलक पर प्रकृति का सविस्तार चित्रण हुआ है । मुख्यतः सप्तम तथा नवम सर्ग में, गौणत: अन्यत्र, देवविमल की तूलिका ने नगर, उपवन, षड्ऋतु, सूर्यास्त, अन्धकार, रात्रि, चन्द्रोदय, रात्र्यन्त, प्रभात, सूर्योदय, नदी, पर्वत आदि के अभिराम चित्र अंकित किए हैं । स्थान-स्थान पर प्रकृति का यह चित्रण चरित-परक काव्य के विवरण में रोचकता का संचार करता है। हीरसौभाग्य के इस व्यापक प्रकृति-वर्णन को कवि के प्रकृति-प्रेम का प्रतीक माना जा सकता है, किन्तु देवविमल का वास्तविक उद्देश्य श्रीहर्ष के पगचिह्नों पर चलते हुए, काव्यशास्त्रीय विधान की खानापूर्ति करना है। इसीलिए नैषध की भांति हीरसौभाग्य में सन्ध्याचन्द्रोदय तथा निशावसान-सूर्योदय को प्रमुखता प्राप्त है।
श्रीहर्ष की भाँति प्रकृतिचित्रण में देव विमल का आग्रह अधिकतर उक्ति-वैचित्र्य की ओर है। उसका यह उक्ति-वैचित्र्य काव्य में प्राय: अप्रस्तुत-विधान का परिधान पहन कर आया है, जो स्वयं बहुधा उत्प्रेक्षा के रूप में प्रकट हुआ है, यद्यपि उसमें श्लेष, अर्थान्तरन्यास आदि भी अनुस्यूत रहते हैं । अप्रस्तुतविधान की कुशल योजना के कारण हीरसौभाग्य का प्रकृतिचित्रण अद्भुत सौन्दर्य तथा दीप्ति से तरलित है। जहाँ श्रीहर्ष ने अपनी बहुविध विद्वत्ता तथा कल्पनाशीलता के कारण अपने अप्रस्तुतों को इतना वायवीय बना दिया है कि वे बहुधा अंलकार्य के सौन्दर्य को ध्वस्त कर देते हैं, वहाँ देवविमल के अप्रस्तुत प्रस्तुत को विशदता प्रदान करते हैं। देवग्मिल के अप्रस्तुतों के स्रोतों का संकेत आगे यथास्थान किया जाएगा। यहाँ इतना कहना पर्याप्त होगा कि वह एक प्रस्तुत के लिए आसानी से अनेक अप्रस्तुत जुटा सकता है, जो उसकी कल्पनाशीलता का प्रबल प्रमाण है। सातवें सर्ग में सान्ध्य राग तथा चन्द्रोदय का और नवें सर्ग में प्रभात का वर्णन करते समय तो उसने अपनी कल्पना का कोश लुटा दिया है।
सूर्य अस्त हो गया है। आकाश में सन्ध्या की गाढी लालिमा फैल गयी है। कवि की कल्पना है कि विश्वविजयी काम ने, उचित अवसर जानकर, गगनांगन में