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हीरसौभाग्य देवविमलगणि
कालिदासोत्तर काव्यसाहित्य का सार्वभौम सम्राट् है । उसने जिस अलंकृत शैली का चरम विकास किया तथा जिन काव्यरूढ़ियों को सायास प्रतिष्ठित किया, उनसे संस्कृत - महाकाव्य दूर तक प्रभावित हुआ है । माघ की तुलना में श्रीहर्ष का साहित्य पर अल्प प्रभाव पड़ा है। इसका मुख्य कारण उनकी 'ग्रन्थग्रन्थि' की विवेकहीन वृत्ति है। जिन परवर्ती महाकाव्यों की रचना नैषधचरित के अनुकरण पर हुई है, उनमें देवविमलगणि का हीरसौभाग्य', अपने विविध गुणों के कारण, अत्युच्च पद अधिकारी है। सतरह सर्गों के इस विशाल काव्य में तपागच्छ के प्रख्यात आचार्य, हीरविजयसूरि का उदात्त चरित वर्णित है । अकबर तथा हीरविजयसूरि की आध्यात्मिक गोष्ठी, मुगल सम्राट् के हृदय में अपूर्व परिवर्तन का सूत्रपात करती है जिससे उसका दृप्त वैभव संयमघन साधु की निरीहता के समक्ष नत हो जाता है । यही मर्मस्पर्शी प्रसंग देवविमल के काव्य का हृदयस्थल है । तत्कालीन प्रणाली के अनुरूप, हीरसौभाग्य में जैनाचार्य का चरित काव्य-शैली में निरूपित किया गया है । कवि की निष्पक्षता के कारण यह हीरसूरि के जीवन का प्रामाणिक स्रोत भी है और देवविमल की काव्यप्रतिभा, Safaa की दृष्टि से भी इसे उच्च धरातल पर प्रतिष्ठित करती है । हीरसौभाग्य पर, एक ओर, सिद्धिचन्द्र की यह उक्ति - यथार्थमेव यज्जातं तत्तथैव निगद्यते ' - अक्षरश: चरितार्थ होती है; दूसरी ओर श्रीहर्ष की परम्परा के सम्यक् पालन के कारण इसे न्यायपूर्वक जैन साहित्य का नैषध कहा जा सकता है ।
हीरसौभाग्य का स्वरूप
चरित के तथ्यात्मक निरूपण के कारण हीरसौभाग्य ऐतिहासिक काव्य का आभास देता है । आधुनिक शब्दावली में इसे चरितात्मक ( बॉयग्रेफिक ) भी कह सकते हैं, पर इसका शास्त्रीय स्वरूप सर्वोपरि है। शास्त्रीय शैली के महाकाव्य की रचना-विधि के अनुरूप हीरसौभाग्य का प्रतिपाद्य आधार मात्र है, जिस पर कवि ने अपनी अभिव्यंजना शैली के द्वारा काव्य का विशाल प्रासाद खड़ा किया है । काव्य का शिल्प शास्त्रीय महाकाव्य की प्रकृति का पोषक है । वैदुष्यपूर्ण भाषा,
१. काव्य माला, गुच्छक ६७, बम्बई, सन् १९०० २. भानुचन्द्रचरित्र, सिंघी जैन ग्रंथमाला, बम्बई, १.२