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जैन संस्कृत महाकाव्य
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किया था जैसे देवसूरि ने दिगम्बर कुमुदचन्द्र को। उनके चरण-कमल का भृंग विमल प्रस्तुत काव्य का प्रणेता है । देवविमल ने मूलकाव्य की रचना के बाद उस पर ' सुखावबोध' टीका भी लिखी थी । काव्य का संशोधन उनके मेधावी शिष्य कल्याणविजय तथा धनविजय ने बहुत मनोयोग से किया था ।
मूलकाव्य, इसकी वृत्ति तथा प्रशस्ति में हीरसौभाग्य के रचनाकाल का कोई संकेत नहीं है । अन्य ग्रन्थों से कुछ प्रकाश मिलता है । धर्मसागरगणि की मराठी गुरु परिवाड़ी, संस्कृत वृत्ति सहित पट्टावलीसमुच्चय 'श्रीतपागच्छपट्टावलीसूत्रम्' नाम से प्रकाशित हुई है । वृत्ति से विदित होता है कि मूल कृति ( गुरुपरिवाड़ी) का संशोधन सम्वत् १६४८ में किया गया था तथा उससे पूर्व इसके कई आदर्श हो चुके थे । अत: इसका सम्वत् १६४८ से पूर्व रचित होना निश्चित है । वृत्ति में ग्रन्थकार ने महत्त्वपूर्ण उल्लेख किया है कि हीरविजयसूरि के जीवनवृत्त की जानकारी के लिये सौभाग्य आदि काव्यों का अवलोकन करना चाहिये । इससे स्पष्ट है कि हीरसौभाग्य के अधिकतर भाग की रचना उक्त संवत् (१६४८ ) से पूर्व हो चुकी थी । किन्तु वर्तमान काव्य में हीरसूरि के देहोत्सर्ग का वर्णन होने से स्पष्ट है कि इसकी पूर्ति सम्वत् १६५२ के उपरान्त हुई थी । हीरविजय के स्वर्गारोहण का यही वर्ष है ।
मुद्रित हीरसौभाग्य का सम्पूर्णं चतुर्थ सर्ग, पट्टावलीसमुच्चय (भाग १, पृ० १२०-१३७) में 'श्रीमन्महावीर पट्ट परम्परा' नाम से उद्धृत किया गया है । इसके सम्पादक दर्शनविजयजी ने इसकी स्वरचित टिप्पणी में, हीरसौभाग्य की प्रशस्ति का सन्दर्भ देते हुए मत व्यक्त किया है कि काव्य का आरम्भ सं० १६३६ में किया गया था और स्वोपज्ञ वृत्ति सहित प्रस्तुत हीरसौभाग्य सम्वत् १६७१ में समाप्त हुआ था । परन्तु काव्य की वर्तमान प्रशस्ति में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है ।" क्या प्रशस्ति का कुछ अंश नष्ट हो गया है अथवा यह सम्पादक का भ्रम है ?
पट्टावली समुच्चय के प्रथम भाग के हिन्दी उपक्रम के अनुसार हीर सौभाग्य की विशेषता यह है कि इसकी रचना सम्वत् १६३६ में प्रारंभ हुई थी और पूर्ति सम्वत् १६५६ में हुई क्योंकि धर्मसागर की पूर्वोक्त परिवाड़ी में इसका उल्लेख हुआ है तथा सम्वत् १६५६ की कतिपय घटनाएं इसमें समाविष्ट हैं ।
५. वही, १२-१३
६. वही, १६-२१
७. हीरसौभाग्य, १७.१५७, उन्नतपुर शिलालेख, पंक्ति १
5. हीरालाल कापडिया : हीरसौभाग्यनुं रेखा दर्शन, जैन सत्य प्रकाश, वर्ष १७, अंक ७, पृ० १३६