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जैन संस्कृत महाकाव्य
तथा काव्यरूढ़ियों से शून्य नहीं है । पद्मसुन्दर को श्रीहर्ष की तरह शृंगारकला का कवि मानना तो उचित नहीं है, न ही वह कामशास्त्र का अध्ययन करने के बाद काव्य-रचना में प्रवृत्त हुआ है पर जिस मुक्तता से उसने विवाहोत्तर भोज में बारातियों के हास-परिहास और नवदम्पती की सम्भोगकेलि का वर्णन किया है, वह उसकी रतिविशारदता का निश्चित संकेत है। कनका का नख-शिख-वर्णन (२-१-४७) भी उसकी कामशास्त्र में प्रवीणता को बिम्बित करता है । अष्टम सर्ग का ज्योनार-वर्णन तो खुल्लमखुल्ला मर्यादा का उल्लंघन है। उसके अन्तर्गत बारातियों और परिवेषिकाओं की कुछ चेष्टाएँ बहुत फूहड़ और अश्लील हैं ।२० श्रीहर्ष के समान इन अश्लीलताओं को पद्मसुन्दर की विलासिता का द्योतक मानना तो शायद उचित नहीं पर ये उसकी पवित्रतावादी धार्मिक वृत्ति पर करारा व्यंग्य है, इसमें दो मत नहीं हो सकते। रसचित्रण .. आदर्शभूत नैषधचरित की भाति यदुसुन्दर का अंगी रस श्रृंगार है। पद्मसुन्दर को नव रसों का परम्परागत विधान मान्य है (नवरसनिलयः को नु सौहित्यमेति-२-८३) पर वह शृंगार की सर्वोच्चता पर मुग्ध है । उसकी परिभाषा में श्रृंगार की तुलना में अन्य रस तुच्छ हैं (अन्यरसातिशायी शृंगार: ६-५३) । शान्त रस को तो उसने जड़ता का जनक मानकर उसकी खिल्ली उड़ायी है (शान्तरसैकमन्दधी: ४-४१)। यदुसुन्दर में यद्यपि शृंगार के संयोग तथा विप्रयोग दोनों पक्षों का व्यापक चित्रण मिलता है किन्तु कथानक की प्रकृति के अनुरूप इसमें विप्रलम्भ को अधिक महत्त्व दिया गया है। तृतीय सर्ग में कनका और कुबेर के पूर्वराग का वर्णन है, जो क्रमशः नैषध के चतुर्थ तथा अष्टम सर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। निराश कनका की विप्रलम्भोक्तियाँ भी इसी सर्ग में समाहित हैं। इस प्रकार यद्यपि यदुसुन्दर में विप्रयोग शृंगार का कई स्थलों पर चित्रण है किन्तु कवि ने, श्रीहर्ष के पगचिह्नों पर चल कर उस पर कल्पनाशीलता की इतनी मोटी २०. अन्यः स्फुटस्फटिकचत्वरसंस्थितायास्तव्या वरांगमनुबिम्बितमीक्षमाणः । सामाजिकेषु नयनांचलसूचनेन सांहासिनं स्फुटमचीकरदच्छहासः॥
यदुसुन्दर, .३७ वृत्तं निधाय निजभोजनेऽसौ (?) सन्मोदकद्वयमतीव पुरःस्थितायाः। संधाय वक्षसि दृशं करमर्दनानि चक्रे त्रपानतमुखी सुमुखी बभूव ॥ वही, ८.५२ प्रागर्थयन्निकृत एष विलासवत्या तत्संमुखं विटपतिः स भुजिक्रियायाम् ।। क्षिप्त्वांगुलीः स्ववदने ननु मार्जितावलेहापदेशत इयं परितोऽनुनीता ॥
वही, ८.५४