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जैन संस्कृत महाकाव्य
जिसमें अतिशयोक्ति और शब्दच्छटा का आडम्बर दिखाई देता है। हालांकि पद्मसुन्दर स्वयं दरबारी कवि नहीं थे किन्तु वे सम्भवत: राजदरबारों से सम्पर्क के - कारण उस रूढि के प्रभाव से नहीं बच सके । साकेतनरेश की वीरता के वर्णन वाले इस पद्य में वीररस की यही प्रवृत्ति मिलती है ।
एतदोर्दण्डचण्डद्युतिकरनिकरत्रासितारातिराज
तस्थौ यावद्विशंको द्र मकुसुमलताकुंजपुंजे निलीय । वीक्ष्यै तन्नामधेयांकितनिशितशरध्वस्तपंचाननास्यो
द्भूताशंकं करंकं व्रजतु विवशधीः कां दिशं कांदिशीकः ।।४.६२ इसी प्रसंग का निम्नांकित पद्य नैषधचरित्र पर आधारित है, परन्तु उपयुक्त रूपक के प्रभाव के कारण इसमें मूल की मार्मिकता सुरक्षित नहीं रह सकी । इसमें साकेतराज की कीर्ति को गंगा माना गया है, जो गंगा और यश की उज्ज्वलता की दृष्टि से उपयुक्त है । किन्तु तलवार को यमुना का प्रतिनिधि मानना विचित्र - सा लगता है । दोनों में यद्यपि वर्णसाम्य है पर इससे अभीष्ट भाव की अभिव्यक्ति नहीं होती । श्रीहर्ष की भांति शत्रु की अकीति पर यमुना का आरोप करना काव्यसौन्दर्य की दृष्टि से अधिक विवेकपूर्ण होता । गंगा और यमुना के इस संगम में स्नान करके (मरकर) शत्रु उसी प्रकार स्वर्ग में सुरांगनाओं का भोग करते हैं जैसे पुण्यात्मा संगम स्नान के फलस्वरूप स्वर्गिक सुख प्राप्त करते हैं । यहां साकेतनरेश की वीरता के संचारी रूप में राजन्यवीरों का देवांगनाओं के साथ सुरतक्रीडा का शृंगारी चित्र प्रयुक्त हुआ है।
एतद्दोर्द्वयकीर्तिदेवसरिताधारा जलश्यामला
afrateरवालिका समगमद्वेणोत्रये तत्र च ।
दीनद्वेषिसरस्वतीमिलितया राजन्यवीरव्रजैः
स्नात्वाकारि सुरांगनासुरतक्रीडारसोद्वेलनम् ॥ ४.६१
हास्यरस के एक-दो उदाहरण अष्टम सर्ग में बारातियों के हास-परिहास में मिलते हैं । विद्याधरराज ने बारातियों से ठिठोली करने के लिए उनके आगे कुछ नकली रत्न रखे । एक बाराती के स्फूर्ति से उन्हें उठाते ही दर्शकों की हंसी का
फव्वारा छूट गया ।
सत्येतराणि पृथगप्युपदाकृतानि रत्नानि लांतु गदिता इति कूकुदेन ।
सेतेष्वर्थक इह कूटमणिग्रहीता पश्यं रहस्यत स इत्यहहास्य दाक्ष्यम् ।। ८.६४. प्रकृतिचित्रण
दुसुन्दर में मुख्यत: दो स्थलों पर प्रकृति का चित्रण किया गया है। बारहवें सर्ग का सन्ध्या एवं चन्द्रोदय और प्रभात का वर्णन नैषधचरित के क्रमश: बाईसवें