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यदुसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर
१२१ चित्रकाव्य का विकटतम रूप प्रस्तुत पद्य में मिलता है। इसमें केवल एक व्यंजन -क-के आधार पर रचना के द्वारा कवि ने अपना पाण्डित्य बघारा है।
कुः कां ककंक कैका किकाककु कैकिका।
कां कां कककका काक ककाकुः कंकका कका ॥ १०.४४
श्रीहर्ष ने यद्यपि अपनी रीति को वैदर्भी कहा है, किन्तु उसमें पांचाली और गौड़ी का घना मिश्रण है । पद्मसुन्दर की भाषा में समासबाहुल्य की कमी नहीं है पर उसकी सरलता को देखते हुए उसे वैदर्भी-प्रधान कहना उचित होगा। वैदर्मी की सुबोधता पद्मसुन्दर की भाषा की विशेषता है। अपनी क्लिष्टता के बावजूद नैषध की भाषा पदलालित्य से इतनी विभूषित है कि 'नैषधे पदलालित्यम्' उक्ति साहित्य में श्रीहर्ष के भाषागुण की परिचायक बन गयी। यदुसुन्दर के अधिकतर पद्यों में पदलालित्य मिलेगा जो उसकी भाषा को नयी आभा देता है । कहना न होगा, पादलालित्य अनुप्रास पर आधारित है, जिसका काव्य में व्यापक प्रयोग किया गया है। पदलालित्य ने किस प्रकार भाषा की मधुरता को वृद्धि गत किया है, यह प्रस्तुत उदाहरण से स्पष्ट होगा।
एतस्योद्धरसिन्धुरैरपि मृषे कान्ता पुनर्जगमै
जर्जानानो धरणीधरः स्म धरणी धीरः पृथुः पार्थिवः। एतत्संगरसंगतामरसमज्यामध्यमध्यासितो.
भूयो भूधरभूरिभारहरणे मेधां विधत्तेतराम् ॥५.१४ नैषधचरित वक्रोक्ति-प्रधान काव्य है । यदुसुन्दर भी नैषध की इस विशेषता से अप्रभावित नहीं है । उत्प्रेक्षा, अपह नुति, अतिशयोक्ति, समासोक्ति का स्वतन्त्र अथवा मिश्रित प्रयोग यदुसुन्दर की वक्रोक्ति का आधार है । सापह्नवोत्प्रेक्षा तया सापह्नवातिशयोक्ति के प्रति पद्मसुन्दर का प्रेम नैषध से प्रेरित है। कनका के विरह वर्णन के प्रसंग में, इस पद्य में, मलयानिल में वायव्यास्त्र की सम्भावना करने से उत्प्रेक्षा है और वक्ष पर स्थित बिस का अपह्नव कर नागास्त्र की स्थापना किये जाने से अपह्न ति है।
मलयजैरनिलरनिलास्त्रतामिव किमु प्रजिघाय मनोभवः ।
हृदि कृतैर्नु बिसरियमप्यहो पवनमुक्प्रतिशस्त्रमुपाददे ॥ ३.२५
पांचवें सर्ग में राजाओं के पराक्रम आदि गुणों के बखान में कई स्थलों पर पद्मसुन्दर ने सटीक अतिशयोक्तियों का प्रयोग किया है (५.१६,१८,४४,६।३५) है । वसुदेव तथा कनका की सम्भोगोत्तर स्थिति के चित्रण का आधार अतिशयोक्ति है।
विद्रुमस्य ललितैर्नु विद्रुतं मंदितं मलयमंदमारतः। कोकिलस्य किल काकलीरवर्मुद्रितं समभवद्रतं हि तत् ॥ ११.५७