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यदुसुन्दरमहाकाव्य : पद्मसुन्दर
१११ पर्ते चढ़ा दी हैं कि विप्रलम्भ की वेदना का आभास तक नहीं होता। समूचा विप्रलम्भ-वर्णन ऊहोक्तियों का संकलन-सा प्रतीत होता है। ऐसे कोमल प्रसंगों में कालिदास तीव्र भावोद्रेक करता है पर पद्मसुन्दर संवेदना से शून्य प्रतीत होता है । उस पर अपनी नायिका की विरह वेदना का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसे रोती कनका आंसू गिरा कर 'दान्त' को 'दात' बनाती तथा प्रेम काव्य की रचना करती प्रतीत होती है ।२१ निस्सन्देह यह नैषध का रूपान्तरण करने की विवशता का परिणाम है पर इन क्लिष्ट कल्पनाओं और हथकण्डों के कारण ही उसका विप्रलम्भचित्रण निष्प्राण तथा प्रभावशून्य बना है। उसमें सहृदय भावुक के मानस को छूने की क्षमता नहीं है, भले ही कनका क्रन्दन करती रहे या अपने भाग्य को कोसती रहे। एक-दो उदाहरणों से पद्मसुन्दर के विप्रलम्भ-चित्रण की पद्धति का आभास मिल सकेगा।
कनका की विरहजन्य क्षीणता का वर्णन करने के लिये कवि ने कई कल्पनाएँ की हैं पर वे इतनी दूरारूढ तथा नीरस हैं कि पाठक को उसकी व्यथा का लेशमात्र भी अनुभव नहीं होता। शिल्पी काम ने कनका के शरीर को प्रियवियोग की कसौटी पर तीव्र व्यथा से ऐसे रगड़ा कि वह सोने की क्षीण रेखा बन गयी है । रूपक और उत्प्रेक्षा के जाल में फंस कर वर्ण्य भाव अदृश्य-सा हो गया है। ..
विषमबाणकलादकलावता प्रियवियोगकषस्फुटसाक्षिणी।
कनकराजिरियं कनकातनुः किमुदपादि महाधिनिघर्षणः । ३-२ उस सुन्दरी के शरीर की नगरी अनेक शासकों के अधिकार में है। काम, यौवन और वसुदेव सब उस पर राज्य कर रहे हैं। वे सभी कर वसूलने में कठोर हैं । बेचारी कनका ने अंगलावण्य देकर राजकीय विधान की पालना की है । फलतः उसकी अपनी पूंजी बहुत कम रह गयी है । वह कृशोदरी और कृश बन गयी। ... मदनयौवनवृष्णिजशासनां बहुनृपां सुतनोर्नु तनूपुरीम् ।
तनुरुचा करदानतया जहुः किमजनिष्ट कृशा नु कृशोदरी ॥ ३.२२. ___ कुछ कल्पनाएँ बहुत अनूठी हैं। यदि शरीर में छोटा-सा बाल भी चुभ जाए, उससे भी पीड़ा होती है। कनका की वेदना का अनुमान करना कठिन है क्योंकि उसके कोमल हृदय में छोटा-मोटा बाल नहीं, विशालकाय पहाड़ (भूभृत् - राजावसुदेव) घुस गया है। इस कल्पना का सारा सौन्दर्य श्लेष पर आधारित है। 'पद्मसुन्दर की यह कल्पना नैषध के एक पद्य की प्रतिच्छाया है। पर पद्मसुन्दर ने २१. यदुसुन्दर, क्रमशः ३.१६० तथा १७४ २२. निविशते यदि शूकशिखा पदे सृजति सा कियतीमिव न व्यथाम् ।
मृदुतनोवितनोतु कथं न तामवनिभृत्तु प्रविश्य हृदि स्थितः ॥ नैषध०, ४.११