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रस चित्रण
पाण्डवों का जीवन मानव के उत्थान - पतन की दर्पपूर्ण किन्तु करुण कहानी है । अपने वैविध्यपूर्ण जीवन में उन्हें अनेक चित्र-विचित्र परिस्थितियों से गुज़रना पड़ता है । परन्तु उनके शौर्य तथा साधन-सम्पन्नता का स्वर सर्वत्र गुंजित रहता है । यह कहना अत्युक्ति न होगा कि काव्य में पाण्डवों की सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा की धुरी भीम है । उसकी दुर्द्धर्ष तेजस्विता से काव्य आद्यन्त स्पन्दित है । मृत्युकुण्ड लाक्षागृह से अपने भाइयों तथा माता को अक्षत निकालने, उन्हें बर्बर किम्मर के लोहपाश से मुक्त करने तथा बकासुर के आतंक को समाप्त करने का श्रेय उसी को है। उसके इन युद्धों में वीररस की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है जिसे अर्जुन की वीरता पुष्टि प्रदान करती है । वैसे भी काव्य में सर्वत्र भीम का आचरण वीरोचित साहस तथा दढ़ता से तरलित है । फलतः काव्यमण्डन में अंगी रस के रूप में वीर रस की निष्पत्ति हुई है । चतुर्थ सर्ग में लाक्षागृह से सकुशल निकलने के पश्चात् धर्मराज की शान्तिवादिता की खिल्ली उड़ाने वाली भीम की उक्तियाँ वीरोचित दर्प तथा असहनशीलता से भरपूर हैं। उसके विचार में कौरवों से हित की आशा करना मृगछलना है । वे दुर्जन सत्संगति में रहकर भी अपनी स्वाभाविक दुष्टता नहीं छोड़ सकते । क्या मगरमच्छ गंगाजल में रहने से दयालु बन जाता है ? यदि धर्मराज की दया की मेघमाला विघ्न न बने, वह कौरवों को शलभ की भाँति अपनी क्रोधाग्नि भस्मसात् कर देगा ।
जैन संस्कृत महाकाव्य
मक्रोधवह्रावयकारदीप्ते पापाः पतिष्यन्ति पतंगवत्ते ।
न चेत्तवोद्दामदयाम्बुदाली तच्छान्तिकर्त्री भवितान्तरायः ॥४.३६ काव्यमण्डन में भीम और अर्जुन के युद्धों को पर्याप्त स्थान मिला है जिनके वर्णन में वीररस का प्रबल उद्रेक हुआ है । द्रौपदी को स्वयम्वर में प्राप्त करने में हताश हुआ दुर्योधन ईर्ष्यावश ब्राह्मणवेशधारी अर्जुन पर आक्रमण कर देता है जिससे दोनों में जम कर युद्ध होता है । अर्जुन के पराक्रम के वर्णन में वीररस - विशेषकर उसके अनुभवों— - का सफल चित्रण हुआ है ( भीम को देखते ही दनुज किम्मर के योद्धा उस पर टूट पड़ते हैं। उनका यह दुस्साहस भीम की क्रोधाग्नि में घी का काम करता है । वह उन्हें तत्काल गदा से चूर-चूर कर देता है तथा किम्मर और उसके नगर को ध्वस्त करके अपने भाइयों को बन्धन से मुक्त करता है । भीम तथा किम्मर के युद्ध के इस प्रसंग में वीर रस की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है ।
१३.१ ) ।
प्रारब्धोद्धरसंगरं तमवधोत्किर्मी र मम्बासुरं भ्राम्यधोरगदाविशीर्णवपुषं वीराननेकानपि ।