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जैन संस्कृत महाकाव्य सर्ग चित्रकाव्य के चमत्कार से परिपूर्ण है जिससे प्रकृति पृष्ठभूमि में चली गयी है। दसवें सर्ग में अरिष्टपुर की राजकुमारी रोहिणी स्वयंवर में अन्य राजाओं को छोड़कर, विद्याबल से प्रच्छन्न वसुदेव का वरण करती है जिससे उनमें युद्ध ठन जाता है। प्रतिद्वन्द्वी राजाओं की पराजय के बाद मगधराज की प्रेरणा से समुद्रविजय, गुप्त वसुदेव को ललकारता है पर उसे भी मुंह की खानी पड़ती है । बन्दी से वसुदेव की वास्तविकता जानकर समुद्रविजय के आनन्द का ओर-छोर नहीं रहता । ग्यारहवें सर्ग में नवदम्पती के मथुरा में आगमन तथा सम्भोग-क्रीडा का वर्णन है । बारहवें सर्ग में सन्ध्या, चन्द्रोदय तथा प्रभात के परम्परागत वर्णन के साथ काव्य समाप्त हो जाता है।
यदुसुन्दर की रचना यद्यपि नैषध का संक्षिप्त रूपान्तरण करने के लिए की गयी है तथापि घटनाओं के संयोजन में पद्मसुन्दर अपनी सीमाओं और उद्देश्य दोनों को भूल गए हैं । उनकी दृष्टि में स्वयंवर काव्य की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है । काव्य के चौथाई भाग का स्वयंवर-वर्णन पर क्षय करने का यही कारण हो सकता है । निस्सन्देह यह उसके आदर्श भूत नैषधचरित के अत्यधिक प्रभाव का फल है। पांच सर्गों का स्वयंवर.वर्णन (१०-१४) नैषध के विराट कलेवर में फिर भी किसी प्रकार खप जाता है । यदुसुन्दर में, चार सर्गों (४-६, १०) में, स्वयंवर का अनुपातहीन वर्णन कवि की कथाविमुखता की परिकाष्ठा है। अन्तिम सर्ग को नवदम्पती की कामकेलियों का उद्दीपन भी मान लिया जाए, नवें सर्ग का ऋतुवर्णन काव्यशास्त्रीय नियमों की खानापूर्ति के लिए किया गया प्रतीत होता है । दसवें सर्ग में रोहिणी के स्वयंवर का चित्रण सर्वथा अनावश्यक है। यह वसुदेव के रणशौर्य को उजागर करने की दृष्टि से किया गया है, जो महाकाव्य के नायक के लिए आवश्यक है। ये सभी सर्ग कथानक के स्वाभाविक अवयव न होकर बलात् चिपकाये गए प्रतीत होते हैं । इन्होंने काव्य का आधा भाग हड़प लिया है । यदुसुन्दर का मूल कथानक शेष छह सर्गों तक सीमित है। पद्मसुन्दर को प्राप्त श्रीहर्ष का दाय : यदुसुन्दर तथा नैषधचरित
नैषधचरित की पाण्डित्यपूर्ण जटिलता तथा शैली की क्लिष्टता के कारण उत्तरवर्ती कवि उसकी ओर उस तरह प्रवृत्त नहीं हुए जैसे उन्होंने कालिदास अथवा माघ के दाय को ग्रहण किया है। पद्मसुन्दर नैषधचरित के गुणों (?) पर मुग्ध थे पर उसका विशाल आकार उनके लिये दुस्साध्य था। अतः उन्होंने यदुसुन्दर में नैषध का स्वतन्त्र अल्पाकार संस्करण प्रस्तुत करने का गम्भीर उद्योग किया है । कथानक की परिकल्पना और विनियोग में पद्मसुन्दर श्रीहर्ष के इतने अधिक ऋणी हैं कि यदुसुन्दर को, भिन्न पात्रों से युक्त, नैषध की प्रतिच्छाया कहना अनुचित न