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जनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि वधवा दुरूह नहीं है। हेमचन्द्र, वाग्भट आदि जैनाचायों के विधान का उल्लंघन करके काव्य में चित्रबन्ध की योजना न करना कवि की भाषात्मक सुरुचि का परिचायक है । काव्य में बहुधा प्रसादपूर्ण तथा भावानुकूल पदावली प्रयुक्त हुई है। जैनकुमारसम्भव की भाषा के परिष्कार तथा सौन्दर्य का श्रेय मुख्यत: अनुप्रास तथा गौणतः यमक की विवेक पूर्ण संयत योजना को है । काव्य में जिस कोटि का अनुप्रास तथा यमक प्रयुक्त हुआ है उसने भाषा में माधुर्य तथा मनोरम झंकृति को जन्म दिया है । भाषा की प्रसंगानुकूलता जयशेखर के भाषाधिकार की द्योतक
___ ऋषभदेव के वाक्कौशल की प्रशंसा में जयशेखर ने काव्य की भाषा के गुणों का अवगुण्ठित संकेत किया है। उसके अनुसार भाषा की सफलता उसकी स्वादुता, मृदुलता, उदारता, सर्वभावपटुता (अर्थात् समर्थता) तथा अकूटता (स्पष्टता) पर बाधारित है। जयशेखर ने इन भाषायी विशेषताओं के द्वारा कदाचित् काव्यशास्त्र में मान्य प्रसाद, माधुर्य तथा ओज गुणों का विवरणात्मक पुनराख्यान किया है । और इसमें सन्देह नहीं कि जैनकुमारसम्भव की भाषा में ये तीनों गुण यथोचित विद्यमान
भाषा-सौष्ठव तथा मनोरम पदशय्या काव्य में प्रसादगुण का संचार करते हैं । जैनकुमारसम्भव की भाषा अधिकतर प्रांजलता से परिपूर्ण है। अत: इसके अनेक प्रसंगो में प्रसाद गुणसम्पन्न वैदर्भी रीति का प्रयोग दृष्टिगत होता है, जिसका मूलाधार 'अवृत्ति' अथवा 'अल्पवृत्ति' है। विशेषकर सुमंगला के वासगृह का वर्णन तथा पंचम सर्ग में वर-वधू को दिया गया उपदेश प्रसादगुणजन्य सरलता तथा स्वाभाविकता से ओत-प्रोत है । इन दोनों प्रकरणों की भाषा यथार्थतः सहज है । अतः वह तत्काल हृदयंगम हो जाती है । विवाहोत्तर 'शिक्षा' का यह अंश इस दृष्टि से उल्लेखनीय है
अन्तरेण पुरुषं नाहि नारी, तां विना न पुरुषोऽपि विभाति । पादपेन रुचिमंचति शाखा शाखयव सकलः किल सोऽपि ॥ ५.६१ या प्रभूष्णुरपि भर्तरि दासीभावमावहति सा खलु कान्ता । कोपपंककलुषा नृषु शेषा योषितः क्षतजशोषजलूकाः ॥ ५.८१
मृदुलता तथा सहजता भाषा के माधुर्य गुण की सृष्टि करती हैं । शृंगार के अन्तर्गत भापा-माधुर्य का संकेत शृंगारचित्रण के प्रसंग में किया जा चुका है। तृतीय सर्ग में इन्द्र-ऋषभ-संवाद में भी माधुर्य की छटा है। वीतराग ऋषभदेव को विवाहार्थ प्रेरित करने वाली इन्द्र की युक्तियों का माधुर्य, विषय तथा उद्देश्य के - ४४. वही, १०.६.