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साव्यमण्डन : मण्डन
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मरणासन्न भाइयों तथा माता को मुक्त कर देता है । नवें सर्ग में पाण्डव एकचक्रा नगरी में जाकर प्रच्छन्न वेश में एक दरिद्र बाह्मण के घर में निवास करते हैं । वहाँ भीम माता की प्ररेणा से नरभक्षी बकासुर को मार कर दीन ब्राह्मणी के इकलौते पुत्र की रक्षा करता है तथा नगरवासियों को सदा के लिये उस क्रूर असुर के आतंक से मुक्त कर देता है । द्रौपदी के स्वयंवर का समाचार पाकर पाण्डव पंचाल देश को चल पड़ते हैं । दसवें सर्ग में स्वयम्वर-मण्डप, आगन्तुक राजाओं तथा सूर्यास्त, रात्रि मादि का वर्णन है। द्रुपद कृष्ण को सूचित करता है कि मैं अपनी रूपसी कन्या वाणी से पहले ही वीर अर्जुन को दे चुका हूं। यदि तुम्हारी कृपा से वे जीवित हों तो स्वयम्वर में वे अवश्य आयेंगे ! श्रीकृष्ण द्रुपदराज को विश्वास दिलाते हैं कि पाण्डव सुरक्षित हैं । ग्यारहवें सर्ग में द्रौपदी स्वयंवर सभा में प्रवेश करती है। यहां उसके सौन्दर्य का सविस्तार वर्णन किया गया है। बारहवें सर्ग में पाण्डव ब्राह्मणवेश में मण्डप में प्रवेश करते हैं । अभ्यागत राजा पहले उन्हें स्वयम्वर देखने को लालायित कुतूहली ब्राह्मण समझते हैं किन्तु उनके वर्चस्व को देख कर उनकी वास्तविकता पर सन्देह करने लगते हैं । धृष्टद्युम्न औपचारिक रूप से स्वयम्वर की शर्त की घोषणा करता है । जहां तथाकथित प्रतापी राजा शर्त की पूर्ति में असफल रहते हैं, वहां अर्जुन लक्ष्य को बींध कर सबको विस्मित कर देता है। दुर्योधन ब्राह्मणकुमार को अर्जुन समझ कर द्रुपद को उसके विरुद्ध भड़काता है और उसे द्रौपदी को किसी अन्य उपयुक्त वर को देने को प्रेरित करता है । इस बात को लेकर तेरहवें सर्ग में दोनों में युद्ध ठन जाता है । अर्जुन अकेला ही भुजबल से शत्रुपक्ष को परास्त करता है । अपने अभिन्न सखा तथा मार्गदर्शक कृष्ण से चिरकाल बाद मिलकर पाण्डवों को अपार हर्ष हुआ। वासुदेव पाण्डवों को द्रुपदराज से मिलाते हैं तथा उसे ब्राह्मण कुमारों की वास्तविकता से अवगत करते हैं । पाण्डव, पत्नी तथा माता के साथ हस्तिनापुर लौट आते हैं । यही काव्य समाप्त हो जाता है।
___ इस संक्षिप्त कथानक को मण्डन ने अपने वर्णन कौशल से तेरह सर्गों का विशाल आकार दिया है । इस दृष्टि से ऋतुओं, तीर्थों, नदियों, युद्धों आदि के विपुल वर्णन विशेष उपयोगी सिद्ध हुए हैं । ऐसी स्थिति में मूल कथावस्तु स्वभावतः गौण बन गयी है। काव्यमण्डन में कथानक का सहज प्रवाह दृष्टिगत नहीं होता। द्वितीय तथा तृतीय सर्ग परम्परागत ऋतुओं के वर्णन पर व्यय कर दिये गये हैं । चतुर्थ सर्ग १२. मया दत्ताऽनवद्योगी द्रौपदीयं सुमध्यमा।
पार्थाय सत्यया वाचा पूर्व विक्रमशालिने ॥ १०.३३ त्वत्कृपातः कथंचिच्च जीवेयुर्य दि तेऽनघाः । कुतश्चिच्च समेष्यन्ति राधायन्त्रं ततः कृतम् ॥ १०.३६ ।