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जैन संस्कृत महाकाव्य
सर्वथा अनुकूल है तथा ऋषभ की स्वीकृति प्राप्ति के लिये उपयुक्त वातावरण का
निर्माण करता है ।
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शठौ समेतौ दृढसख्यमेतौ तारुण्यमारौ कृतलोकमारौ ।
भेत्तुं यतां मम जातु चित्तदुगं महात्मन्निति मा स्म मंस्थाः ॥ ३.१६ या दृशा पश्यसि देव रामा इमा मनोभूतरवारिधारा: ।
तां पृच्छ पृथ्वीधरवंशवृद्धौ नेताः किमम्भोधरवारिधाराः ॥ ३.१६
कहने की आवश्यकता नहीं, इन पद्यों का माधुर्य अनुप्रास तथा यमक की कंकृति पर आधारित है ।
जैन कुमारसम्भव की भाषा की इस उदाहृत गुणात्मकता से यह भ्रम नहीं होना चाहिये कि वह सर्वत्र अथवा सरलता से ओतप्रोत है । उसमें एक निश्चित सप्रयत्नता दिखाई देती है । जयशेखर की भाषा उसकी बहुश्रुतता को व्यक्त करती है | व्याकरणसम्मत विद्वत्तापूर्ण प्रयोगों से जयशेखर ने अपने शब्दशास्त्र के पाण्डित्य को बिम्बित करने का नियोजित प्रयत्न किया है । काव्य में प्रयुक्त दुर्लभ शब्द, लुड्., कर्मणि लिट् क्वसु, कानच्, सन्, णमुल प्रत्ययों का प्रचुर साग्रह प्रयोग पाण्डित्यप्रदर्शन की प्रवृत्ति से प्रेरित है" । कर्मणि लुड्. के प्रति तो कवि का कुछ ऐसा पक्षपात है कि उसने काव्य में आद्यन्त उसका व्यापक प्रयोग किया है जिससे कहींकहीं भाषा बोझिल हो गयी है । अप्रचलित धातुओं तथा अन्य रूपों की भी काव्य में कमी नहीं है । यह अवश्य है कि विद्वत्ता प्रदर्शन की यह प्रवृत्ति मर्यादित है । इस संयम के कारण ही जैनकुमारसम्भव की भाषा में सहजता तथा प्रौढता का मनोरम मिश्रण है ।
जयशेखर का शब्दचयन तथा गुम्फन, पर्यवेक्षणशक्ति तथा वर्णन कौशल प्रशंसनीय है । वह प्रत्येक प्रसंग को यथोचित वातावरण में, उसकी सम्पूर्ण ४५. लुड्. – उपासिष्टीष्टताम् (२.६७), संगसीष्ट (३.६३), अजोषिष्ट ( ३.३५), न्यविक्षत ( ३.४०), आयासिषम् ( ८.३१ ), मा सबत्पदम् ( १०.५६ ) कर्मणि लुङ्, बृगध्वनावामि (२.६ ) आविरभावि शच्या ( ३.३९ ), प्रसन्नत्वमभाजि (४.५५), वज्रिणा द्रुतमयोजि ( ५.१ ), युवाक्षिमृगैस्तदरामि (६.२१), हारि मा तदिदम निद्रया ( १०.५२ ), अवेदि नेदीयसि देवराजे (११.५६ )
कर्मणि लिट् - वैधिकीबभूवे ( ३.५२ ), फलं जगे ( ४.२५), शरदोपतस्थे (६.६३) स्वप्नं बभूवे (८.४०) आदि
प्रत्यय --सिसत्यापयिषुः (६.२२), जगन्वान् ( ८.४७), श्रवः पल्वलप्रम ( १०.१४) आदि