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जैन संस्कृत महाकाव्य
४. जात्यरत्नपरीक्षायां बालाः किमधिकारिणः । ७.६८
५. अतित्वरा विघ्नकरीष्टसिद्धः। ८.६२ बलंकारविधान
अलंकार भावाभिव्यक्ति के सशक्त साधन हैं । बलंकारों के परिधान में सामान्य भाव भी विलक्षण सौन्दर्य से दीप्त हो जाते हैं । जयशेखर के अलंकार चमत्कृति के साधन नहीं हैं। वे काव्यसौन्दर्य को प्रस्फुटित करते हैं तथा भाव प्रकाशन को समृद्ध बनाते हैं। जैनकुमारसम्भव के अलंकार-प्रयोग की सहजता का यह प्रबल प्रमाण है कि उसके यमक और श्लेष भी दुरूह नहीं हैं । दसवें सर्ग में सुमंगला की सखियों के नत्य की मुद्राओं तथा विभिन्न दार्शनिक मतों के श्लिष्ट वर्णन में श्लेष तथा दार्शनिक सिद्धान्तों की नीरसता ने कवित्व को अवश्य दबोच लिया है । जयशेखर की अलंकारयोजना के दिग्दर्शन के लिये कतिपय उदाहरण आवश्यक हैं।
शब्दालंकरों में कवि ने अनुप्रास तथा यमक का अत्यधिक प्रयोग किया है। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि अनुप्रास तथा यमक काव्य में किसी-न-किसी रूप में सर्वत्र व्याप्त है । अनुप्रास तो प्रायः सभी अलंकारों में अनुस्यूत है । अन्त्यानु। प्रास का एक मधुर उदाहरण देखिए
सम्पन्नकामा नयनाभिरामाः सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः । यत्रोज्झितान्यप्रमवावलोका अवृष्टशोका न्यविशन्त लोकाः ॥ १.२
जैनकुमारसम्भव का यमक भी कवि की सुरुचि का परिचायक है । अन्य कवि जहां यमक को अपनी विद्वता का वाहक बनाकर उससे कविता को अभिभूत कर देते हैं, वहां जयशेखर का यमक क्लिष्टता से मुक्त है । सुनन्दा के गुणों के प्रतिपादक इस पद्य में यमक की सरलता उल्लेखनीय है।
परान्तरिमोदकनिष्कलंका नाम्ना सुनन्दा नयनिष्कलंका। तस्मै गुणश्रेणिमिरवितीया प्रमोदपूरं व्यतर द्वितीया ॥ ६.४६
जयशेखर ने अपने भाषाधिकार के प्रदर्शन के लिये, यमक की भांति श्लेष का थी प्रचुर प्रयोग किया है। परन्तु उसके श्लेष की विशेषता यह है कि दसवें सर्ग के पूर्वोक्त प्रसंग को छोड़ कर वह भी यमक के समान दुरूहता से अस्पृष्ट है। कम से कम वह अधिक कष्टसाध्य नहीं है । प्रस्तुत पद्य में पावस तथा सुमंगला का श्लिष्ट विधि से एक साथ चित्रण किया गया है।
धनागमप्रीणितसत्कदम्बा सारस्वतं सा रसमुद्गिरन्ती । रजोवज मंजुलतोपनीतछाया नती प्रावृषमन्वकार्षीत् ॥ ६.४० जै. कु. सम्भव में अर्थालंकार भावोद्बोध के साधन हैं । उपमा कवि का प्रिय