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जनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि विशेषताओं के साथ वणित करने में समर्थ है। उसके कुछ वर्णनों में भले ही यथार्थता का अभाव हो, वे प्रायः सर्वत्र कवित्व से तरलित है। सुमंगला के वासगृह तथा अष्टापद पर्वत के वर्णन जयशेखर की दो शैलियों के प्रतीक हैं । पहले में सहजता का लालित्य है, दूसरे में प्रौढता की गरिमा। सुमंगला के आवास के इस काल्पनिक वर्णन में कवित्व की कमनीयता तथा भाषा की मधुरता दर्शनीय है।
यन्न नीलामलोल्लोचामुक्ता मुक्ताफलस्रजः । बभुनभस्तलाधारतारकालक्षकक्षया ॥ ७.३ सौवर्ण्यपुत्रिका यत्र रत्नस्तम्भेषु रेजिरे । अध्येतुमागता लीला देव्या देवांगना इव ॥ ७.४ यन्मणिक्षोणिसंक्रान्तमिन्दं कन्दुकशंकया। आदित्सवो भग्ननखा न बालाः कमजीहसन् ॥ ७.७ व्यालम्बिमालमास्तीर्णकुसुमालि समन्ततः । यवदृश्यत पुष्पास्त्रशस्त्रागारधिया जनैः ॥ ७.८
द्वितीय सर्ग में अष्टापद के वर्णन में भाषा की प्रौढता तथा शैली की गम्भीरता उसके स्वरूप को व्यक्त करने में सहायक है । कवि की प्रौढोक्ति ने उसे सशक्तता प्रदान की है। प्रस्तुत श्लेष में अष्टापद को गजराज का रूप दिया गया
ववर्श दूरावथ दीर्घदन्तकं घनालिमाद्यत्कटकान्तमुन्नतम् ।
प्रलम्बकक्षायितनीरनिर्भरं सुरेश्वरोऽष्टापदमद्रिकुंजरम् ॥ २.३०
योगीजन जब शरत् की रातों में अष्टापद की स्फटिक-शिलाओं पर बैठ कर साधना करते हैं तो उन्हें भीतर और बाहर दोनों स्थानों पर 'परमतेज' के दर्शन होते हैं।
शरन्निशोन्मुद्रितसान्द्रकौमुदीसमुन्मदिष्णुस्फटिकांशुडम्बरे ।
निविश्य यन्मूद्धि साधक रसाधिकर्महोऽन्तर्बहिरप्यदृश्यत ॥ २.३८ - जैनकुमारसम्भव 'सूक्तिसुधा का सरोवर' है। उसमें विभिन्न प्रसंगों में लगभग सौ भावपूर्ण लोकोक्तियां प्रयुक्त हुई हैं। वे बहुधा अर्थान्तरन्यास तथा दृष्टान्त के अवयव हैं । जयशेखर की सूक्तियां उसकी संवेदनशीलता, निरीक्षणशक्ति तथा लोकबोध को द्योतित करती हैं । कतिपय भावपूर्ण सूक्तियां यहां उद्धृत की जाती हैं।
१. यदुद्भवो यः स तदाभचेष्टितः । २.६ २. स्याद् यत्र शक्तेरवकाशनाशः श्रीयेत शूरैरपि तत्र साम । ३.१५ ३. न कोऽथवा स्वेऽवसरे प्रभूयते । ४.६९