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जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि को निनिमेष दृष्टि से देखते थे । हेमचन्द्र की कवित्वपूर्ण भाषा में वे नेत्रों के रास्ते एक-दूसरे हृदय में उतर जाते थे। वर-वधू के वस्त्रांचलों की गांठ बांध कर उनके अविचल प्रेम की कामना की जाती थी । इसके बाद उन्हें स्वर्णकलशों से सज्जित वेदी पर ले जाया जाता था, जहां वे मन्त्रपूत अग्नि की प्रदक्षिणा करते थे। विवाह-विधि सम्पन्न होने पर वर हाथ से वधू के मुख का स्पर्श करता था तथा उसे भोजन कराता था, जो इस तथ्य का प्रतीक था कि नारी का निर्वाह पुरुष के अधीन है । वधू वर को भोजन भेंट करती थी, जो इस बात का द्योतक था कि प्रतिभासम्पन्न पुरुष भी भोजन के विषय में नारी पर आश्रित है। भोजन के बाद वस्त्रबन्धन खोल दिया जाता था। समूची विधियां सम्पन्न होने पर बारात को विदा किया जाता था। आजकल की तरह पुरनारियां समस्त गृहकार्य छोड़ कर बारात को देखने के लिए उमड़ पड़ती थीं।
दाम्पत्य जीवन के सुखमय यापन के लिए वर पक्ष के वृद्धजन वर तथा वधू को पृथक्-पृथक् उपदेश देते थे । इन्द्र ने ऋषभ को तथा शची ने वधुओं को जो उपदेश दिया था, उसमें पति-पत्नी के पारस्परिक सम्बन्धों एवं कर्तव्यों का मार्मिक प्रतिपादन है, जो शाश्वत सत्य की भांति, आज भी नवविवाहित प्रेमी युगलों के लिये उपयोगी तथा ग्राह्य है । दाम्पत्य का आनन्द समन्वय तथा समर्पण में निहित है। पति-पत्नी वृक्ष तथा शाखा के समान अन्योन्याश्रित हैं। वक्ष के बिना शाखा "निराधार है और शाखा के बिना वृक्ष निराठ्ठ है।
४६. कनीनिकासु तेऽन्योन्यं रेजिरे प्रतिबिम्बिताः। ___ प्रविशन्त इवान्योन्यं हृदयेष्वनुरागतः ॥ वही, १.२.८५२ “५०. जैनकुमारसम्भव, ४.४५-७६; ५.७-४७ -५१. वही,५.६१