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जैनकुमारसम्भव : जयशेखरसूरि उसके विचार में रात्रि वस्तुतः गौरवर्ण थी। यह अनाथ साध्वियों को सताने का फल है कि उनके शाप की ज्वाला से उसकी काया काली पड़ गयी है। विकल्प रूप में, रात्रि के अन्धकार को चकवों की धुंधयाती विरहाग्नि का धुंआ माना गया है । उसके स्फुलिंग, जुगनुओं के रूप में स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं।
हरिद्रयं यदभिन्ननामा बभूव गौर्येव निशा ततः प्राक् । सन्तापयन्ती तु सतीरनाथास्तच्छापदग्धाजनि कालकाया ॥ ६.७. यत्कोकयुग्मस्य वियोगवह्निर्जज्वाल मित्रेऽस्तमिते निशादौ ।
सोद्योतखद्योतकुलस्फुलिंगं तख़्मराजिः किमिदं तमिस्रम् ॥ ६.११.
प्रौढोक्ति के प्रति अधिक प्रवृत्ति होने पर भी जयशेखर प्रकृति के सहज रूप से सर्वथा पराङ्मुख नहीं है। जैन कुमारसम्भव में उसने श्लेष द्वारा प्रकृति के स्वाभाविक गुण चित्रित करने का प्रयत्न किया है, किन्तु यह तथ्य है कि प्रकृति के मालम्बन पक्ष के प्रति उसकी रुचि सतही है। छठे सर्ग में सुमंगला तथा षड् ऋतुओं के सरल मनोरम चित्र दृष्टिगत होते हैं (६.४०-४५), वसन्त में पुष्प विकसित हो जाते हैं। मलय बयार चलने लगती है। भौंरों की गुंजन तथा कोकिल की कूक घातावरण को मदसिक्त करती हुई जनमानस को मोहित करती है। वसन्त के इन उपकरणों का रोचक वर्णन श्लेष के झीने आवरण में स्पष्ट दिखाई देता है।
उल्लासयन्ती सुमनःसमुहं तेने सदालिप्रियतामुपेता।
वसन्तलक्ष्मीरिव दक्षिणाहिकान्ते रुचि सत्परपुष्टघोषा ॥ ६.४४ अधिकतर पूर्ववर्ती तथा समवर्ती कवियों के विपरीत जयशेखर ने प्रकृति की उद्दीपक भूमिका को महत्त्व नहीं दिया। केवल उद्यानप्रकृति के चित्रण में लता तथा भ्रमरों की परिरम्भक्रीड़ा, कामिनियों की भावनाओं को उद्वेलित करती हुई तथा उनमें चंचलबुद्धि का संचार करती हुई चित्रित की गयी है। प्रकृति यहां उद्दीपन का काम करती है।
वल्ली विलोला मधुपानुषंगं वितन्वती सत्तरुणाश्रितस्य । पुरा परागस्थितितः प्ररूढा पुपोष योषित्सु चलत्वबुद्धिम् ॥ ६. ५४.
जैनकुमारसम्भव में पशु-पक्षियों की प्रकृति का भी स्वाभाविक चित्रण किया गया है, जो कवि की पर्यवेक्षण शक्ति का द्योतक है तथा अपनी मार्मिकता और तथ्यपूर्णता के कारण पाठक के हृदय को अनायास आकृष्ट करता है। ग्रीष्म की दोपहरी में, गर्मी से संतप्त पक्षी, बाल चेष्टाएँ छोड़ कर योगी की भाँति घने वृक्षों की छाया में चुपचाप बैठे रहते हैं। मध्याह्न-वर्णन में पक्षियों के इस स्वभाव का रम्य चित्रण हुआ है।
अमी निमीलन्नयना विमुक्तबाह्यभ्रमा मौनजुषः शकुन्ताः । श्रयन्ति सान्द्रद्र मपर्णशाला अभ्यस्तयोगा इव नीरजाक्षि ॥ ११.६६