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आर्य जाति की अन्य सभी शास्त्राओं में दूसरे सब देवताओं के नाम पाये जाते हैं परन्तु इन्द्र का नाम प्राथ वेद में ही पाया जाता है। 'जेन्द अवस्था में इन्द्र को चोर और लुटेरा कहकर उनकी निन्दा की गई है। इन्द्र की एक उपाधि वृत्रन भी है ग्रह उपाधि उसको बाद में दी गई। ईरानी लोग 'चन्न' देवताओंको मानते थे, "जद अवस्था में इसका पूजा की विधि है। अतः यहाँ 'आरोप, बाद में इन्द्र के लिये भी कर दिया गया है। जो लोग इन्द्र के विरोधी थे उनमें बनिये लोग बड़े निरीह थे। वे लड़ाई झगड़ा अधिक पसन्द न करते थे. चुपचाप थन जमा करते थे, उनमें अधिक जन मांस न खाते थे. गो जाति की सेवा करते थे क्योंकि यह पशु इन्हें धी' दूध' खूब देते थे । इन्द्रका एक खास काम यह था कि वे बराबर उनकी गायें चुरा ले जाया करते थे। वे ब्राह्मणों को दान नहीं देते थे. इसलिये ऋषि लोग भी प्रायः उनसे नाराज रहते थे। अब जान पड़ता है कि उस समय के श्राय और अनार्य समाज में एक ऐसा दल था जो यज्ञ आदि का विरोधी और ब्राह्मणों में भक्ति न रखने वाला था। (वैदिक भारत में रायसाहब दिनेशचन्द्रसेन )
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इन्द्र भ्रम में पड़ जाता है।
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कदाचन प्रयुच्छस्यु भे निपासि जन्मनी ।।
ऋ० म०८ । ५२ । ७ अर्थात हे इन्द्र ! तुम कभी कभी भ्रम में पड़ जाते हो ? ।
अतः इन्द्र को ईश्वर मानने वालों को ईश्वर में भी यह गुण मानना पड़ेगा।
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