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अनुयोगद्वारसत्र
शून्यता, तच्छ्रन्यं च वस्तु द्रव्यमेव भवतीति वाचना दिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि साधु व्यावश्यकम् । अनुप्रेक्षा तूपयोगपूर्विकैव भवति, उतरतंत्र वर्तमाना द्रावश्यकं न भवति ।
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ननु आगममाश्रित्य द्रव्यावश्यकमित्यागमरूपमिदं द्रव्यायवश्यकमित्युक्तं भवति एतच्च युक्तं न प्रतिभाति, यत् आगमो ज्ञानं ज्ञानं च भात्र एवेति कथमस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते ? इति चेत् उच्यते - आगमस्य कारणमात्मा, तदधिष्ठितो देहः, शब्दश्वोपयोगशून्यसृत्रोच्चारणरूप इहास्ति, न तु साक्षादागमः । एतच्च त्रितयमागम कारणात् कारणे कार्योपकारादारम उच्यते, कारणं च विवक्षित भावस्य द्रव्यमेव भवतीत्यदोषः ।
अनुपयोगपूर्वक गृहीत किये गये हैं । भावशून्यता का नाम अनुपयोग है । उपयोग से शून्य द्रव्य ही होता है । इसलिये वह आवश्यकशास्त्र का ज्ञाता साधु उसमें वाचनादिक से वर्तमान होता हुआ भी उपयोग से शून्य होने के कारण द्रव्यावश्यक है । अनुप्रेक्षा जो होती है वह उपयोगपूर्वक ही हंती है इसलिये उसमें वर्तमान साधु द्रव्यावश्यक नहीं है वह तो भावावश्यक हैं |शंका- जब आप आगम को आश्रित करके द्रव्यावश्यक की प्ररूपणा करते हो तो वह द्रव्यावश्यक आगमरूप वहा गया है मानने में आता है । परन्तु यह बात युक्त प्रतीत नहीं होती है क्योंकि आगम जो होता है वह तो ज्ञानरूप होता है । और ज्ञान भावरूप होता है । अतः आगम में द्रव्यता कैसे बन सकती है ?
उत्तर - आगम के कारण आत्मा, आत्माविष्ठित देह, और उपयोगशून्य सूत्र का उच्चारणरूप शब्द ये तीन माने गये हैं । साक्षात आगम नहीं । ये तीन आगम के कारण होने से कारण में आगमरूप कार्य का उपचार किया गया है । इसलिये इन्हें आगमरूप से कहा है । विवक्षित भाव का जो कारण
ગૃહીત કરવામાં આવેલ છે. ભાવશૂન્યતાનુ નામ અનુપયોગ છે દ્રશ્ય જ ઉપયાગથી રહિત હોય છે. તેથી તે આવશ્યક શસ્ત્રના જ્ઞાતા સાધુ તેમાં વાચના આદિરૂપે વર્તમાન હાવા છતાં પણ ઉપયેગથી રહિત હાવાને કારણે દ્રશ્યાવશ્યક જકહેવાય છે. અનુપ્રેક્ષા તા ઉપયેગપૂર્ણાંક જ થાય છે. તેથી તેમાં (અનુપ્રેક્ષામાં) વમાન સાધુ ૬૦ચાવશ્યક નથી, પણ ભાવાવશ્યક છે.
શકા—જ્યારે આપ આગમને આશ્રિત કરીને દ્રવ્યાવશ્યકની પ્રરૂપણા કરી છે. ત્યારે એવુ લાગે છે કે દ્રશ્યાવશ્યકને આગમરૂપ કહેવાયાં આવ્યુ છે, એવુ આપ પ્રતિપાદન કરી રહ્યા છે. પરન્તુ એ વાત યુકત લાગતી નથી કારણ કે આગમ