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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७१ सलक्षणशृङ्गाररसनिरूपणम्
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सङ्गमेच्छायाः संजननः = समुत्पादकः तथाच मण्डनविकास विन्चोक हास्य रमणलिङ्गः- मण्डनम् - अलङ्कारैर्गात्रालङ्करणम्, विलासः - प्रियसमीपगमने यः स्थानासंनगमनविकि तेषु विकारोऽकस्मान्न क्रोधस्मित चमत्कारमुखविक्लवनं स विलासः, विश्वोकः = अभिमतप्राप्तोपि गदनादः, सापराधस्य सक्चन्दनादिना संयमनं ताडनं च, हास्यम् = पतीतार्थम्, लीळा = कामगमन भाषितादि रमणीयचेष्टा, अलब्धप्रियसमागमया स्त्रिया स्वचित्तविनोदार्थे प्रियस्य या वेषगतिदृष्टिह सितमणितैरनुकृतिः क्रियते सा वा लीला, रमणं क्रीडनम् एतानि त्रि-चिह्नं यस्य स तथाविधो भवति । उदाहरणमाह- शङ्कारो रसो यथा श्यामा - षोडशवर्षदे
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यहां पर कार्य में कारण के उपचार से रति के कारणभूत जो ललना आदि पदार्थ हैं, वे ग्रहण किये गये हैं। उनके साथ संगम की इच्छा का जनक यह शृङ्गार रस होता है । ( मंडणाविलासविषोय, लीलारमण लिंगो) अलंकारों से शरीर को सज्जित = अलंकृत, करना इसका नाम 'मण्डन' है । प्रिय के समीप जाने में जो स्थान, आसन, गमन, एवं विलोकन में विकार और अकस्मात क्रोध, स्मित, चमत्कार, मुख विक्लवन होता है, वह विलास है। अभिमत की प्राप्ति में भी गर्व (अहंकार) से अनादर करना और अपराधसहित का स्रक - माला चंदन आदि से संयमन करना, ताडन करना, यह विश्वोक है । हास्य - हँसना । सकाम गमन एवं भाषित आदि जो रमणीय चेष्टाएँ हैं, वे 'लीला' हैं । अथवा जिस स्त्री को प्रिय का समागम अलब्ध हो रहा है, वह जो अपने चित्त को विनोदित करने के लिये प्रिय के वेष
રતિના કારણુ જે તવના વગેરે પદાર્થો છે તેમનુ` ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે, તેમની સાથે સંગમની ઇચ્છાનેા ઉભાવક આ શુ′ગાર રસ હાય છે. (મંગળविलास्वविब्वोय, ह्रास, लीला रमणलिंगो) असारथी शरीरने सुबित
शङ्कृत-१२वु तेनु' नाम 'भ'उन' छे. प्रियनी पासे तां के स्थान, आसन, शमन भने विखेोउन विहार तेभन सोयिता- डोध, स्मित, यमકાર, મુખવિજ્ઞવન હોય છે, તે વિશ્વાસ છે અભિમતની પ્રાપ્તિમાં પણ ગવ (अडडा२) थी मनाह२ ४२वा, तेमन अपराधीनु स्त्र-भाषा-यहन वगेरेथी સચમન કરવું, તાડન કરવુ' વિખ્ખાક છે. હાસ્ય-હસવુ. સકામ ગમન અને लावित ? रमणीय येष्टाओ छे, ते 'सीसा' हे अथवा ने श्री प्रियसभाગમ મેળવી શકી નહી' તેવી સ્ત્રી પાતાના ચિત્તને પ્રસન્ન કરવા માટે પ્રિયના बेष गतिनु दृष्टिनुं, हास्यनुं, वाणीतुं भानुम्र मेरे छे, ते 'बीसा' छे.