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अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १५४ क्षायिकभावनिरूपणम् 'उच्चनीचकर्मविषमुक्तः' इत्यन्तैः पदैः । एषां व्याख्या पूर्ववद् भावनीया । अन्तरायकर्म हि दानान्तरायादिभेदैः पञ्चविध बोध्यम् । सम्प्रति तत्क्षयनिष्पन्नानि नामानि प्राह-क्षीणदानान्तरायः' इत्यारभ्य 'अन्तरायकर्मविप्रमुक्तः' इति। एषा होने पर जो नाम निष्पन्न होते हैं उन्हें कहते हैं । गोत्र कर्म दो प्रकार का है-उच्च गोत्र और नीच गोत्र । संतान क्रम से चले आये हुए जीव के आचरण का नाम गोत्र है। प्रतिष्ठा प्राप्त हो ऐसे कुलमें जन्म दिलानेवाला कर्म उच्च गोत्र और शक्ति रहने पर भी प्रतिष्ठा न मिल सके ऐसे कुल में जन्म दाता कर्म, नीच गोत्र कहलाता है। गोत्र कर्म के अभाव होते ही उच्च और नीच दोनों प्रकार का गोत्र नष्ट हो जाता है-अतः क्षीणोच्चगोत्र और क्षीण नीचगोत्र ये नाम निष्पन्न होते हैं। (अगोए निग्गोए खीणगोए) इन अगोत्र निगोत्र क्षीणगोत्र शब्दों की व्याख्या पहिले जैसी ही जाननी चाहिये । अब सूत्रकार अन्तराय कर्म के अभाव में जो नाम निष्पन्न होते हैं उन्हें बताते हैं-दानान्त. राय आदि के भेद से अन्तराय कर्म ५ प्रकार का है। इनमें (खीणदाणं. तराए, खोणलाभंतराए खीण भोगंतराए, खीणउवभोगंतराए, खीण वीरियंतराए) दानान्तराय के क्षय होने से क्षीण दानान्तराय,
(खीण उच्चागोए खीण नीयागोए) गोत्रमना नीय प्रभारी ने १२ ५४ छे-(१) यगोत्र, (२) नीयगोत्र मा म पाथी प्रति भने छ, એવા કુળમાં જન્મ અપાવનાર કર્મને ઉચ્ચગોત્ર કર્મ કહે છે શક્તિ હેવા છતાં પણ–યોગ્યતા હોવા છતાં પણ પ્રતિષ્ઠા ન મળે એવા કુળમાં જન્મ અપાવનાર કર્મને નીચ ગોત્રકર્મ કહે છે ગાત્રકને ક્ષય થતાંની સાથે જ ઉચ્ચ અને નીચ, આ બન્ને પ્રકારના ગોત્રને નાશ થઈ જાય છે તેથી જેના ગોત્રકમને नाश ५७ गये. छ । ना "क्षीणायगेत्रि" भने “क्षी नायगोत्र" नामा नि०पन्न थाय छे. (अगोए, निग्गोए, खीणगोए) qणी वा सामान "भगोत्र" " निगेत्रि" भने “ क्षीगोत्र" ५५ डेवामा भाव छे. मा પદની વ્યાખ્યા “અહ” આદિની વ્યાખ્યાને આધારે સમજી શકાય એવી છે.
હવે સૂત્રકાર અન્યાય કર્મના અભાવથી આત્માના જે જે નામે નિષ્પન્ન थाय छ, तमनु थन ४२ छ
દાનાન્તરાય આદિના ભેદથી અન્તરાયકર્મ પાંચ પ્રકારના કહ્યા છે. (खीणदाणंतराए, खीणलाभंतराए, खीणभोगंतराए, खीणउवभोगंतराए, खीणवीरि. यंतराए) ना हानान्त:मनो क्षय य: पापी 'क्षीहानान्तर