Book Title: Anuyogdwar Sutra Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 846
________________ अनुयोगचन्द्रिका टीका सूत्र १७० सलक्षणवीररसनिरूपणम् ८३३ रौत्यनेनेति करुणास्पदत्वाद् वा करुणः, इत्युभयविधाऽपि करुणशब्दव्युत्पत्तिबोध्या ।।८। प्रशान्तःपरमगुरुनचाश्रवणादि हेतुसमुद्भव उपशमप्रकर्षात्मको रसः पशान्त रसः। प्रशाम्यति-क्रोधादिजनितचित्तविक्षेपादिरहितो भवत्यनेनेति प्रशान्तशब्दव्युत्पत्तिर्बोध्या ॥९॥ मू० १६९ ॥ एतानेव रसान् लक्षणादि द्वारेण विवक्षुः प्रथमं तावद् वीररसं लक्षणनिर्देशपुरस्सरं निरूपयति मूलम्-तत्थ परिच्चायमि य, तवचरणसत्तुजणविणासे य। अणणुसयधिइपरक्कम-लिंगो वीरो रसो होइ॥१॥ वीरोरसो जहा-सो नाम महावीरो, जो रजं पयहिऊणपव्वइओ। कामकोहमहासत्तुपक्खनिग्घायणं कुणइ॥२॥सू०१७०॥ ___ छाया-तत्र-परित्यागे च तपश्चरणे शत्रुजनविनाशेच। अननुशयधृतिपराक्रमकारण प्राणी करुणा का आस्पद (स्थान) बनता है, वह रस 'करुणरस' है। करुणशब्द की दोनों प्रकार की यह व्युत्पत्ति संगत जाननी चाहिये। परमगुरूओं के वचन श्रवणादिरूप हेतु से उद्भूत जो उपशम की प्रकपतारूपरस है, वह 'प्रशान्तरस है। जिसके द्वारा प्राणी क्रोध आदिसे जनित-चित्त विक्षेप आदि से विहीन बन जाता है ऐसी यह प्रशान्त शब्द की व्युत्पत्ति है । ॥ सू० १६९ ॥ अब सूत्रकार इन्हीं रसों को लक्षणोदि द्वारा कहने की इच्छा से सर्व प्रथम लक्षण निर्देश पुरस्सर वीररस का कथन करते हैं। "तत्थ परिच्चायंमि" इत्यादि। शब्दार्थ-(तत्थ) इन नवरसों के बीच में (परिच्चायंमिय तव चरण. જેનાથી પ્રાણી કરૂણા પૂર્ણ થઈ જાય છે તે રસ કરૂણ રસ છે. કરૂણ શબ્દની આ બન્ને પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ એગ્ય જ કહેવાય પરમગુરૂજનના વચન શ્રવણ વગેરે રૂપ હેતુથી ઉદ્ભૂત જે ઉપશમની પ્રકર્ષતા રૂપ રસ છે તે પ્રશાન્ત રસ છે. જેના વડે પ્રાણી ક્રોધ વગેરેથી ઉદ્ભવેલ ચિત્તવિક્ષેપાદિથી વિહીન થઈ જાય છે પ્રશાન્ત શબ્દની આ વ્યક્તિ છે. સૂ૦૧૬લા હવે સૂત્રકાર એજ રસોને લક્ષણે વગેરે દ્વારા સ્પષ્ટ કરવાની અપેક્ષાથી અહીં સર્વ પ્રથમ વીર રસનું કથન લક્ષણ નિર્દેશ પુરસ્સર કરે છે – ___ “तत्थ परिच्चायमि" त्या: शाय-(तत्थ) मा न१ २सोमi (परिचायमि य तवचरणसत्तुजण अ० १०५

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