Book Title: Anuyogdwar Sutra Part 01
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 785
________________ मनुयोगदार यिकी, क्षायोपशमिकानि इन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वम्, इति औदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकेति भावत्रयनिष्पन्नः षष्ठो भक्तो नारकादिगतिचतुष्टये संभवति । अत इतरेत्वष्टौ भङ्गाः प्ररूपणामात्रम्, तेषां वाऽप्यसंभवात् ॥सू.१५९॥ अथ चतुष्कसंयोगान्निरूपयितुमाह मूलम्-तत्थ णं जे ते पंच चउक्कसंजोगा ते णं इमे-अस्थि णामे उदइय-उवसमिय-बइय-खओवसमियनिष्फण्णे? अस्थि णामे उदइय-उवसमियखइयपारिणामियनिष्फण्णे२, अस्थि णामे उदइयउवसमियखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे३, अस्थि णामे उदइयखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे४, अस्थि णामे उवसमियखइयखओवसमियपारिणामियनिप्फण्णे५। 'कयरे से णामे उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिप्फण्णे ?, उदइयउवसमियखइयखओवसमियनिप्फण्णे-उदइएत्ति मणुस्से, पारिणामिक इन भावों से-निष्पन्न भंग है वह नारकादि चारों गतियों में होता है क्यों कि ये नारकादि गतियां औदयिकी मानी गई है और वहां जो इन्द्रियां हैं वे क्षायोपशमिक भावरूप है और जीवत्व वहां पारिणामिक भाव रूप है। इस प्रकार औदयिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक इन तीन भावों से निष्पम यह छठा भंग नारक आदि चारों गतियों में संभवता है। तथा इनसे अतिरिक्त और जो आठ भंग हैं वे केवल प्ररूपणा मात्र हैं। क्यों कि इन भंगों की कहीं पर भी संभावना नहीं है !॥सू०१५९।। સંભવી શકે છે, કારણ કે નારકાદિ ગતિએને ઔદયિક માનવામાં આવે છે. આ ગતિના જીવમાં જે ઇન્દ્રિયો હોય છે તે ક્ષાયોપથમિક ભાવ રૂ૫ ગણાય છે. અને છેવત્વ પરિણામિક ભાવ રૂપ ગણાય છે. આ રીતે ઔદથિક, સાયોપથમિક અને પરિણામિક, આ ત્રણ ભાના સંયોગથી નિષ્પન્ન થતા છો ભંગ નારકાદિ ચાર ગતિઓમાં સંભવી શકે છે. પાંચમાં અને છઠ્ઠા ભંગ સિવાયના આઠ અંગોની કેઈ પણ જગ્યાએ શકયતા હતી નથી તેથી માત્ર પ્રરૂપણ કરવા નિમિત્તે જ તે અંગેનું કથન અહીં કરવામાં આવ્યું છે, એમ સમજાસૂ૦૧૫લા

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