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अनुयोगचन्द्रिका टीका. सू० १७ ज्ञायकारीद्रव्याव कनिरूपणम् १२१ यथा को दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्भ आसीत, अयं घृतकुम्भ आसीत् । तदेतत् शायफशरीरद्रव्यावश्यकम् ॥ सू० १७ ॥
टीका-शिष्यः पृच्छति--'से कि तं' इतादि। हे भदन्त ! अथ कि तत् ज्ञायक शरीरद्रयावकम् ? उत्तरमाह-'जाणयसरीरदव्वावस्सयं' इत्यादि। ज्ञायकशरीरद्रव्यावश्यकं ६र्यते इत्यर्थः। आवश्यये ति पदार्थाधिकारयकर.आवश्य तिपदस्य आवश्यक पदवाच्यस्य आगमस्य यः अर्थाधिकारः अर्थ एव अर्थाधि, कारः तस्य ज्ञायकः-जाता, तस्य आवश्यकम्त्रार्थ ज्ञातवतः माध्यादे यत् शरीरम् । क्षयोपशम के अनुसार (आवस्सएत्तिपयं) आवर ३ सूत्र का विशेषरुप से (आधविय) गुरु से ज्ञान प्राप्त किया था (पप्णवियं) सामान्यरूप से उसे शिष्यों को समझाया था। (परू वियं) सूत्राथे पर नपूर्वक फिर उसे शिष्यजनों को पढाया था (दंसिय) प्रतिलेखनादि क्रियारूप मे उम ग्वयं ने अपनी आत्मा में उतारा था । और बाद में इसी रूप में दूसरों को दिखलारा था-अर्थात् प्रतिलेखनादि क्रिया के प्रदर्शन से यह :कट किए था कि दोनों समय समस्त भंड पाणों की प्रतिलेखना करनी आवश्यक है । अंगुल मात्र वस्त्र खण्ड भी विना प्रति लेख्ना के नहीं रहना चाहिये । निदमियं) आवश्यकशास्त्र के ग्रहण करने में जो शिप्यजन अक्षम थे उनके लिये इसने करुणावश होकर बार २ आवश्यक शास्रग्रहण व वाया । (उवदंसियं) सर्वनय और युक्तियों द्वारा शिष्यजनों के हृदयस्थान में इसे बिना किसी संदेह के इसने जमाया था अनः वह शरीरज्ञायक शरीरद्र यावश्यक हैं । सा१श्य सूत्रनु विशेष३५ (आदि) Y२ . मययन यु तु-ज्ञान प्रात यु तु. (ण) समान्य तशित स.००० रन (परूयं) सत्रार्थना ४थन त थी शियाने नुययन २०युतुसियं) પ્રતિલેખનાદિ ક્રિયારૂપે તેમણે પોત પોતાના આત્મામાં ઉતાર્યું હતું, અને ત્યાર બાદ એજ રૂપે શિવેને બનાવ્યું હતું, એટલે કે પ્રતિલખના આદિ ક્રિયાના પ્રદ
નથી એ પ્રકટ કર્યું હતું કે બન્ને કામય રામ પાત્ર વનાદિ ઉપકરણાની પ્રતિલેખના કરવી આવશ્યક છે. વસ્ત્ર એક ઇંચ જેટલા ભાગ પણ પ્રતિલેખના विनान। २यो ने नाही. (निदमियं) मा१३५ शान ए ४२वाने (प्यो અક્ષમ હતા, તેમના પ્રત્યે કરુણાભાવ રાખીને તેણે તેમને વારંવાર આવશ્યક સૂત્ર अS ४२११ाने प्रयत्न यात 'उवदंसियं ५५ नय अने युतिया ६२ તેણે શિષજનેના હદસ્થાનમાં છે કે રૂપે તેને એ બધાણ કરાવ્યું હતું તેથી તેનું આ શરીર જ્ઞાયક શરીર દ્રવ્યાવશ્યક છે.