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उत्तरज्झयणाणि
२२ अध्ययन १ : श्लोक ३४,३५ टि० ५४,५५
रता है।
आए हुए दो
और ८१५१
श्लोक में पुनः भिक्षाटन करने की जो बात कही है, उसकी
आज कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ—इस दीन संगति इस प्रकार होती है'-साधु सामान्यतः एक बार ही भिक्षा
अवस्था में न रहे। के लिए जाए परन्तु ग्लान के निमित्त या जो आहार मिला उससे डॉ. हर्मन जेकोबी ने इसका अर्थ इस प्रकार दिया हैक्षुधा शांत न होने पर वह साधु पुनः भिक्षा के लिए जाए। इसकी (MONK Should) neither boldly erect nor humbly bowing पुष्टि में टीकाकार दशवैकालिक (अ.५ उ.२) के निम्न श्लोक down,-मुनि अकड़ कर खड़ा न रहे और न दीनता से नीचे उद्धृत करते हैं
झुके। ....................जई तेणं न संथरे।।२।।
यह अर्थ टीकाकार के वैकल्पिक अर्थ पर आधारित है। तओ कारणमुपन्ने, भत्तपाणं गवेसए।
पर यह प्रसंगोपात्त नहीं लगता। .....||३||
इसी श्लोक का दूसरा चरण 'नासन्ने नाइदूरओ'इस ३३ श्लोक का विस्तार दशवैकालिक ५२।१०, ११. गोचराग्र गए हुए मुनि के गृह-प्रवेश की मर्यादा की ओर संकेत १२ में मिलता है।
करता है। इसका विस्तार दशवकालिक ५१।२४ में मिलता है। चक्खुफासओ-इसका संस्कृत रूप है 'चक्षुःस्पर्शतः।' तीसरे चरण में आए हुए दो शब्द-'फासुयं' और 'परकर्ड यह तस् प्रत्यय सप्तमी के अर्थ में है।
पिण्ड' का विस्तार दशवैकालिक ८२३ और ८५१ में मिलता है। बृहद्वृत्तिकार ने इस शब्द के दो संस्कृत रूप और दिए प्रासुक का अर्थ है-बीज रहित, निर्जीव। यह उसका हैं-चक्षुःस्पर्शे और चक्षुःस्पर्शतः।
व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ है-निर्दोष या अइक्कमे-प्रस्तुत इसका धातुगत अर्थ है-अतिक्रम विशुद्ध। करना, उल्लंघन करना। परन्त प्रकरण की दृष्टि से इसका अर्थ इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-प्रासुक और 'प्रवेश करना' ही संगत लगता है। कारण कि इससे पूर्व 'लंघिया' स्पर्शंक। बेचरदासजी ने इसका संस्कृत रूप 'स्पर्शक' किया है। शब्द (जिसका अर्थ है—लांघकर) आ चुका है।
जार्ल सरपेन्टियर ने माना है कि केवल जैन संस्कृत में ५४. श्लोक ३४
ही इसका रूप 'प्रासुक' किया जाता है, किन्तु यह स्पष्ट ____ इस श्लोक का प्रथम चरण 'नाइउच्चे व नीए वा'
अर्थ-बोधक नहीं है। ल्यूमेन ने औपपातिक में यही आशंका ऊर्ध्वमालापहृत और अधोमालापहृत नामक भिक्षा के दोषों की
व्यक्त की है। किन्तु हॉरनल, पिशल और मेयर ने इसको ओर संकेत करता है। इनकी विशेष जानकारी दशवकालिक सूत्र
'स्पर्शक' माना है। इसका अर्थ है मनोज्ञ, स्वीकार करने के ५।१।६७,६८,६९ में प्राप्त है।
योग्य। वृत्तिकार ने इसके कुछ वैकल्पिक अर्थ दिए हैं। ५५. प्राणी और बीज रहित (अप्पपाणेऽप्पबीयंमि) (क) १. स्थान की अपेक्षा : ऊंचे स्थान पर खड़ा न रहे। अप्पपाणे-इसका अर्थ है-प्राणी-रहित स्थान में। दोनों २. शारीरिक मुद्रा की अपेक्षा : कंधों को उकचा टीकाकार 'पाण' शब्द से द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों का ग्रहण करते कर-कड़ कर खड़ा न रहे।
हैं। परन्तु चूर्णिकार इस शब्द के द्वारा समस्त प्राणियों-स्थावर ३. भाव की अपेक्षा : 'मैं लब्धि-संपन्न हूं' इस व त्रसका ग्रहण करते हैं। अहंकार-पूर्ण अवस्था में न जाए।
यहां शान्त्याचार्य ने यह तर्क उपस्थित किया है कि इस (ख) १. स्थान की अपेक्षा : नीचे स्थान पर खड़ा न रहे। चरण में आए हुए दो शब्दों 'अल्प-प्राण' और 'अल्पबीज' में २. शारीरिक मद्रा की अपेक्षा : कंधों को नीचा अल्पबीज शब्द निरर्थक है, क्योंकि प्राण शब्द से समस्त प्राणियों
कर-दीनता की अवस्था में खडा न रहे। का ग्रहण हो जाता है। बीज भी प्राण है। ३. भाव की अपेक्षा : मैं कितना मंदभाग्य हं कि मझे इस तर्क का उन्होंने इन शब्दों में समाधान किया है
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ६०:
इह च मितं कालेन भक्षयेदिति भोजनमभिधाय यत्पुनर्भिक्षाटनाभिधानं तत् ग्लानादिनिमित्तं स्वयं वा बुक्षुक्षावेदनीयमसहिष्णोः पुनर्धमणमपि न
दोषायेति ज्ञापनार्थम्, उक्तं च---.....। २. वही, पत्र ६०
चक्षुःस्पर्शत इति सप्तम्यर्थे तसिः, ततः चक्षुःस्पर्श-दृग्गोचरे चक्षुस्पर्शगो वा दृग्गोचरगतः। वही, पत्र ६०: नात्युच्चे प्रासादो परिभूमिकादौ नीचे वा-भूमिगृहादी, तत्र तदुत्क्षेपनिक्षेपनिरीक्षणासम्भावाद् दायकापायसम्भवाच्च, यद्वा नात्युच्चः उच्चस्थानस्थितत्वेन ऊर्वीकृतकंधरतया वा द्रव्यतो, भावतस्त्वहो! अहं
लब्धिमानिति मदाध्मातमानसः, नीचोऽत्यन्तावनतकन्धरो निम्नस्थानस्थितो
वा द्रव्यतः, भावतस्तु न मयाऽद्य किंचित् कुतोऽप्यवाप्तमिति दैन्यवान् । ४. जैन सूत्राज, पृष्ट । ५. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६० : प्रगटा असव इति सूत्रत्वेन
मतुब्लोपादसुमन्तः-सहजसंसक्तिजन्मानो यस्मात् तत् प्रासुकम्। (ख) सुखबोधा, पत्र १२। ६. दी उत्तराध्ययन, सूत्र, पृ. २८०, २८१। ७. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ६०।
(ख) सुखबोधा, पत्र १२। ८. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ४० : प्राणग्रहणात् सर्वप्राणीनां ग्रहणम्।
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