________________
विनयश्रुत
२१ अध्ययन १ : श्लोक ३०-३३ टि० ४६-५३
वृत्तिकार ने 'बुद्धा' शब्द में वैकल्पिक रूप में पंचमी से भिक्षा लाने वाले गृहस्थ की अयतना का सम्यग् अवबोध नहीं विभक्ति मानकर 'बुद्धाद्' का अर्थ आचार्य आदि किया है और हो सकता। 'विगयभया' को उसका विशेषण माना है—'विगतभयाद् बुद्धाद्'।' २. जहां भोजन करने वाले गृहस्थों की पंक्ति लगी हो, ४९. हाथ-पैर से चपलता न करे (अप्पकुक्कुए) मुनि उस पंक्ति में खड़ा न रहे। क्योंकि इससे गृहस्थों के मन
चूर्णि में 'अप्प' का अर्थ निषेध है। शान्त्यचार्य ने 'अप्प' में अप्रीति और अदृष्टकल्याणता (अकल्याण-दर्शन) आदि दोष शब्द के अर्थ 'थोड़ा' और 'नहीं--दोनों किए हैं। नेमिचन्द्र ने संभव हो सकते हैं। केवल 'थोड़ा' किया है।
डॉ. जेकोबी ने इसका इस प्रकार अर्थ किया है, 'मुनि ५०. श्लोक ३१ :
पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वाले व्यक्तियों के समक्ष (आहार ___काले कालं समायरे'—यह मुनि की सामाचारी का द्योतक
की याचना के लिए) न जाए। है। मुनि को विविधि क्रियाओं में संलग्न होना होता है। यदि वह
उन्होंने इस अर्थ का कोई आधार प्रस्तुत नहीं किया प्रत्येक क्रिया को उचित काल में या निर्धारित समय में संपन्न । तो सारी क्रियाएं ठीक समय पर परिसम्पन्न हो जाती ५२. प्रतिरूप (मुनिवेष) में (पडिरूवेण)
प्रस्तुत श्लोक में प्रतिरूप शब्द है और २६वें अध्ययन के जिस देश या समाज में भिक्षा का जो काल हो, मुनि उसी ४३वें सूत्र में प्रतिरूपता। समय भिक्षा के लिए निकले। क्योंकि अकाल में जाने पर मुनि इस श्लोक की व्याख्या में चूर्णिकार ने प्रतिरूप के तीन को खिन्न होना पड़ता है, आत्म-क्लामना होती है। वह समय अर्थ किए हैपर जाए और समय पर लौट आए। यदि भिक्षा प्राप्त न हो तो (१) शोभनरूप वाला। वह घूमता ही न रहे। वह इस सूत्र का स्मरण करे कि भगवान्
(२) उत्कृष्ट वेश वाला अर्थात् रजोहरण, गोच्छग और ने कहा है-अलाभोत्ति न सोएज्जा, तवोत्ति अहियासए- पात्रधारी। अप्राप्ति में दीन न बने। स्वतः तपस्या होती है, ऐसा सोचे। (३) जिनप्रतिरूपक-तीर्थंकर की भांति हाथ में भोजन मुझे थोड़ा मिला या नहीं मिला-ऐसा सोचकर घर-घर न करने वाला। भटके।
इनका प्रकरणगत अर्थ यह है कि मुनि स्थविरकल्पी या केवल घूमते रहने से अन्यान्य क्रियाओं का काल अतिक्रान्त जिनकल्पी-जिस देश में हो उसी वेश में भिक्षा करे। हो जाता है। तब वह न समय पर प्रतिलेखन कर सकता है वृत्तिकाल में इसका अर्थ-'चिरंतन मुनियों के समान वेष और न स्वाध्याय-ध्यान ही कर सकता है।
वाला' ही मुख्य रहा है। यही श्लोक दशवैकालिक ५।२।४ में आया है।
प्रतिरूप का अर्थ प्रतिबिम्ब है। यह तीर्थंकर का भी हो ५१. परिपाटी (पंक्ति) में खड़ा न रहे (परिवाडीए न सकता है और चिरंतन मुनियों का भी हो सकता है। यहां चिठे ज्जा)
चिरंतन मुनियों के समान वेष वाला—यह अर्थ प्रासंगिक है और बृहद्वृत्ति में परिपाटी के दो अर्थ प्राप्त हैं-गृहपंक्ति
२६/४३ में तीर्थंकर के समान वेष वाला—यह अर्थ प्रासंगिक
है। देखें-२६४३ का टिप्पण। और भोजन के लिए बैठे हुए व्यक्तियों की पंक्ति। १. गृहपंक्ति-मुनि एक स्थान पर खड़ा रहकर घरों की
५३. श्लोक ३३ लंबी पंक्ति से लाया जाने वाला आहार न ले। क्योंकि दूर के घरों
इससे पूर्ववर्ती श्लोक में 'मियं कालेण भक्खए' इस पद द्वारा भोजन-विधि का उल्लेख हो चुका है। फिर भी इस
१. बृहद्वृत्ति, पत्र, ५८। २. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३८ : 'अप्पकुक्कुए' त्ति न गात्रापी स्पंदयती ण
वा अबद्धासणो भवति, अन्नत्थुसास-णीससितादी अत्थस्सेह मुक्त्वा शेषमकुकुचो। बृहद्वृत्ति, पत्र ५८, ५६ : 'अप्पकुक्कुए' त्ति अल्पस्पन्दनः करादिभिरल्पमेव चलन्, यद्वा-अल्पशब्दोऽभावाभिधायी, ततश्चाल्पम्असत् कुक्कुयं त्ति कौत्कुचं-कर-चरणभू भ्रमणाद्यसच्चेष्टात्मक
मस्येत्यल्पकौत्कुचः। ४. सुखबोधा, पत्र ११॥
बृहद्वृत्ति, पत्र ५६ : परिपाटी गृहपंक्तिः , तस्यां न तिष्ठेत्-न पंक्तिस्थगृहभिक्षोपादनायैकत्रावस्थितो भवति, तत्र दायकदोषाऽनवगमप्रसंगात् यद्वा-पंक्त्यां-भोक्तुमुपविष्ट पुरुषदिसम्बन्धिन्यां न तिष्ठेत्।
अप्रीत्यदृषकल्याणतादिदोषसम्भावत्। ६. जेकोबी, Jain Satras, पृष्ट ५ : Amonk Should not approach (dining
people) sitting in a row : ७. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. ३६ : पडिरूवं णाम सोभणरूवं, जहा पासादिये
दरिसणीज्जे अहिरूदे पडिरूवे, रूपं रूपं च प्रति यदन्यरूपं, तत्प्रतिरूपं, सर्वधर्मभूतेभ्यो हि तद्रूपमुत्कृष्टं, तत्तद् रयहरण-गोच्छ-पडिग्गह माताए, जे वा पाणिपडिग्रहिया जिणकप्पिता तेसिं गहणं, तेसिं जिनरूवप्रतिरूपक भवति, यतस्तेन प्रतिरूपेन। (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ५६ : प्रतिप्रतिबिम्बं चिरन्तनमनीनां यद्वपं तेन. उभयत्र पतग्रहादिधारणात्मकेन सकलान्यधार्मिकविलक्षणेन। (ख) सुखबोधा, पत्र ११।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org