Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेय बन्द्रिका टीका श० ५ उ० २ सू० २ ओदनादिद्रव्यशरीरनिरूपणम् १३१ णामितानि स्वपरतदुभयशस्त्र द्वार कृतान्यपर्यायाणि अथ च ' अगणिज्झामिया' अग्निध्यामितानि, अग्निना परिपाचितानि स्वकीयपूर्ववर्णरहितानि कृतानि, तथा 'अगणिझूसिया' अग्निजोषितानि अग्निना जले उत्कालितानि पूर्वस्वभावपरित्याजितानि 'अगणिसेविया' अग्निसे वितानि अग्निवाष्पितानि 'अगणिपरिणामिया' अग्निपरिणामितानि अग्निना तत्सदृशोष्णीकृतानि भवन्ति तदा ' अगणिनीव सरीराइ' अग्निजीव शरीराणि इति 'वत्तव्यंसिया' वक्तव्यं स्यात् , पूर्वभावभज्ञपनाज्ञाः अतीत वस्तु पर्यायनिरूपणात्मकतया तदनुसारम् ओदनादीनि द्रव्याणि सापापरिपक्वधान्यावस्थायां वनस्पतिशरीराणि भवन्ति तदनन्तरम् उद्अवस्था वाले हो जाते हैं अर्थात् अपनी पहिले की अवस्था से और दूसरी अवस्था में आ जाते हैं (अगणिज्झामिया ) अग्निद्वारा पकादिये जोते हैं-अपने पूर्व के वर्ण से रहित हो जाते हैं, (अगणिझुसिया) अग्निद्वारा तत्प जल में उकाले जाते हैं अपने पूर्व स्वभाव से दूसरे स्वभाव में ला दिये जाते हैं, (अगणिसेविया) अग्निद्वारा उद्भूत वाष्य से पकाये जाते हैं, अथवा अग्नि की बाष्प (भाप) से वे युक्त हो जाते हैं, और (अगणि परिणामिया ) अग्निद्वारा अग्नि जैसे गरम उष्ण कर दिये जाते हैं, तब वे (अगणिनीवसरीराइ ) अग्नि जीव के शरीर हैं “इ” इस प्रकार से ( वत्तव्वं सिया) कहे जा सकते हैं। पूर्वभा. वप्रज्ञापना वस्तु की अतीत पर्याय को निरूपण करनेवाली होती है अतः इसके अनुसार ओदनादिक द्रव्य जब सतुष, अपरिपक, धान्यावस्था में रहते हैं तब वे उस अपेक्षा उस अवस्था में वनस्पतिकाय के शरीर होते हैं । क्यों कि ये अपनी पूर्व अवस्था में वनस्पतिकाय में रहे ઉભયના શસ્ત્રો દ્વારા પહેલાની અવસ્થામાંથી બીજી અવસ્થામાં આવી જાય છે, न्यारे तेमने " अगणिज्ज्ञामिया " विना ५वामा मावे छ तेमन ५सान थी २डित ४२१मा माछ, “अगणिज्झसिया" मनिवास ઉકળતા પાણીમાં બાફવામાં આવે છે- તેમના પૂર્વ સ્વભાવમાંથી અન્ય સ્વભાવમાં सापामा माव छ, “ अगणि-सेविया " मनिवास १२थी ५४वामा साव छ, भने “ अगणि परिणामिया " मनि। मनि २i or 6०१ ४२वामां भाव छ, त्यारे 'गणिजीवसरीरा इ वत्तब्वं सिया" ते भने मनिनi શરીર કહી શકાય છે
પૂર્વભાવ પ્રજ્ઞા પના” વસ્તુની અતીત પર્યાયનું નિરૂપણ કરનારી હોય છે. તે તે માન્યતા અનુસાર એદનાદિક દ્રવ્ય જયારે ફેતરાથી યુક્ત, અપરિપકવ (રાંધ્યા વિનાના) ધાન્યરૂપે હોય છે, ત્યારે તે અવસ્થામાં તે વનસ્પતિકાયના શરીરરૂપ હોય છે, કારણ કે તે તેની પૂર્વાવસ્થામાં વનસ્પતિકાય રૂપે રહ્યું હતું
श्री. भगवती सूत्र:४