Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेन्द्रका टोका श १५ ३०४ सू० १ छग्नस्थ राग्वणनिरूपणम्
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यथा खलु छउमत्थे मणूसे आरगयाई सदाई सुणेइ ' छद्मस्थो मनुष्य आराद् गतान् शब्दान् शृणोति ' णो पारगयाई सदाई सुणेइ ' नो पारगतान् शब्दान् गृणोति, 'तहणं भंते ! तदा खलु हे भदन्त ! केवली मणुस्से कि आरगयाई सदाई सुणेइ !' केवली केवलज्ञानी मनुष्यः किम् आराद् गतान् शब्दान् गृणोति ? णो पारगयाई सद्दाई सुणेइ नो पारगतान् शब्दान् गृणोति ? भगवानाह - हे 'गोयमा ! केवल आरगयं वा' हे गौतम! केवली खलु आराद्गतम् इन्द्रियसमीपस्थंवा, अथच पारगतं वा इन्द्रिय विषयातीतमपि सव्वदूरमूलमणंतियं सद जाणार पासइ ' सर्वदूरमूलम् सर्वथा सर्वापेक्षया दूरं विप्रकृष्टं मूलंच समीपं सर्वदूरमूलम् णं भंते ! छमत्थे मणूसे ' हे भदन्त ! जिस प्रकार से छद्मस्थ मनुष्य आरगयाई सहाद्दं सुणेइ पास में रहे हुए शब्दों को तो सुनता है और ' णो पारगयाई सद्दाई सुणेइ ' दूर रहे हुए शब्दों को नहीं सुनता है ' तह णं भंते! उसी प्रकार से हे भदन्त ! ' केवली मणुस्से ' जो केवली भगवान् हैं वे ' कि आरगयाई सद्दाई सुणेइ ! क्या पास में रहे हुए ही शब्दों को सुनते हैं और ' णो पारगयाई सद्दाहं सुणेइ ' जो शब्द उन से दूर देश में अयोग्य देश में स्थित है उन्हें नहीं सुनते हैं क्या ? इस के समाधान निमित्त प्रभु गौतम से कहते हैं कि - ' केवली णं आरगयं वा पारगयं वा जाव पासह ' हे गौतम! जो केवलज्ञानी होते हैं ऐसे मनुष्य इन्द्रियसमीपस्थित और इन्द्रियसमीपस्थित नहीं भी ऐसे शब्दों को तथा 'सन्दूरमूलमणंतियं स जाणइ, पासह' सर्वथा सर्वा पेक्षया दूर अत्यन्त विप्रकृष्ट और मूल-समीप में रहे हुए शब्दों को, अर्थात् अत्यन्त दूर वर्ती शब्दों को, तथा अत्यन्त निकट वर्ती भी शब्दों
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प्रश्न - ( जहा णं भंते ! छउमत्थे मणूसे) डे लहन्त ! ने रीते छद्मस्थ भनुष्य ( आरगयाइ सद्दाई सुणेइ ) पासेथी भावता शब्होने ( णो पारगयाई सहाई सुणेइ ) इरना शम्होने सांभजतो नथी, भेन प्रमाणे, हे लहन्त ! ( केवली मणुस्से ) " वली लगवान ( आरगयाई सहाई सुणे ) शु पासेना शब्होने ४सल छे भने ( पारगयाई सहाई णो सुणेइ ) इरथी भवता ( अयोग्य प्रदेशमांथी भावता ) शब्होने सांमजता नथी ? उत्तर- (केवली णं आरगयं वा पारगयं वा जाव पासइ ) हे गौतम! કેવલજ્ઞાની મનુષ્ય ઇન્દ્રિયની નજીકમાં રહેલા અને ઇન્દ્રિયયી દૂર રહેલા શબ્દોને यथा (सन्त्रमूलमणंतियं सदं जाणइ, पासइ) अत्यंत इस शब्होने भने सत्यत નિકઢવી શબ્દોને પોતાના કેવળજ્ઞાન દ્વારા જાણે છે. અને દેખે છે કેવળજ્ઞાનને
श्री भगवती सूत्र : ४
સાંભળે પણ
" तहणते "