Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमैयचन्द्रिका टी० श० ६ उ० ३ सू ३ कर्थ पुद्गलोषचयस्वरूपम् ८४५ __तत् केनार्थेन ? गौतम नैरयिक-तिर्यग्योनिक-मनुष्य-देवाः, गतिम्आगतिं प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिताः, सिद्धा गतिं प्रतीत्य सादिकाः अपर्यवसिताः, भवसिद्धिका लब्धि प्रतीत्य अनादिकाः सपर्यवसिताः, अभवसिद्धिकाः संसार प्रतीत्यानादिका अपर्यवसिताः, तत् तेनार्थेन ॥ सू० ३ ।। गौतम ! (अत्थेगइया साइया सपज्जवसिया, चत्तारि वि भाणियब्वा) कितनेक जीव ऐसे हैं जो सादि सान्त हैं, कितनेक जीव ऐसे हैं जो सादि अनन्त हैं । कितनेक जीव ऐसे हैं जो अनादि सान्त हैं और कितनेक जीव ऐसे हैं जो अनादि अनन्त हैं। इस प्रकार से यहां चारों भंग कहना चाहिये। (से केणटेणं० ) हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ? ( गोयमा ! नेरइया तिक्खिजोणिया मणुस्सा देवा गइमागई पडुच्च साइया, सपजवसिया सिद्धा गई पडुच्च साइया अपज्जवसिया, भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अणाइया सपज्जवसिया, अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणाइया अपज्जवसिया से तेणटेणं०) हे गौतम ! नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव गति आगति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । सिद्ध जीव सिद्ध गति की अपेक्षा से सादि अनन्त हैं। भवसिद्धिक जीव लब्धि की अपेक्षा से अनादि सान्त हैं और अभवसिद्धिक जीव संसार की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं।
(गोयमा !) गौतम ! (अस्थेगइया साइया सपज्जवसिया, चत्तारि वि भाणियव्वा) या वो साहि सान्त डाय छे, ८९४ पो सहि मनत હોય છે. કેટલાક જીવે અનાદિ સાન્ત હોય છે અને કેટલાક જીવો અનાદિ मन त हाय छे. मारीते मही यारे 1 (विपी) डेन. (से केणढेण० १ ) हे महन्त ! ५ ॥ ॥२णे मेवु ४ा छौ ?
(गोयमा ! नेरइया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा गइमागई पडुच्च साइया सपज्जवसिया, सिद्धा गई पडुच्च साइया अपज्जवासया, भवसिद्धिया लद्धिं पडुच्च अणाइया सपज्जवसिया, अभवसिद्धिया संसारं पडुच्च अणाइया अपज्जवसिया से तेणठेण ) 3 गीतम! ना२31, तिय या, मनुष्यो भने हेवातिन वान નાર, આદિ ગતિમાં આવવાને કારણે સાદિ કહ્યા છે અને નારક આદિ ગતિઓમાંથી તેઓ નીકળવાના હોવાથી તેમને સાત કહ્યા છે. સિદ્ધ જીવ સિદ્ધ ગતિની અપેક્ષાએ સાદિ અનંત છે, ભવસિદ્ધિક જીવ લબ્ધિની અપે. ભાએ અનાદિ સાન્ત છે અને અભવસિદ્ધિક જીવ સંસારની અપેક્ષાએ અનાદિ मनत छ. गौतम ! ते २णे में धुं छे.
श्री. भगवती सूत्र:४