Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती सूत्रे
बध्नाति ? भगवान् उत्तरयति - 'गोयमा ! भवसिद्धिए भयणाए' हे गौतम ! भवसिद्धिको भजनया - कदाचिद् बध्नाति कदाचिन्न बध्नाति, वीतरागभिन्नो भव सिद्धिको ज्ञानावरणं बध्नाति, वीतरागस्तु न बध्नाति, अतः 'भजनया' इत्युक्तम्, अभवसिद्धिए बंध' अभवसिद्धिको ज्ञानावरणीयं कर्म वध्नात्येव किन्तु '
"
या जो जीव न भवसिद्धिक होता है और न अभवसिद्धिक होता है वह बांधता है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं कि ( गोयमा) हे गौतम (भवसिद्धिए भयणाए ) जो भवसिद्धिक जीव होता है वह भजना से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता है अर्थात्कदाचित् वह इस कर्म का बंध करता भी है और कदाचित् वह नहीं भी करता है। इसका कारण यह है कि भवसिद्धिक जीव दो प्रकार के होते हैं- एक वे जो वीतराग होते हैं दूसरे वे जो वीतराग नहीं होते हैं। वातराग भवसिद्धिक जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बंध नहीं करते और जो अवीतराग भवसिद्धिक जीव हैं वे तो ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करते ही हैं। ग्यारहवें बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव भवसि द्विक वीतराग हैं और इनके नीचे के चतुर्थ गुणस्थानतक के जीव अवीतरागभवसिद्धिक जीव हैं। इसी अभिप्राय से यहाँ (भजना ) पद का प्रयोग किया गया है। तथा जो जीव अभवसिद्धिक- अभव्य है वह ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता ही है- इसी कारण - ( अभवसिद्धिए बंधइ) ऐसा पाठ कहा गया है। किन्तु जो जीव ऐसे हैं कि न भवसि -
જે જીવ ન ભવસિદ્ધિક અને ન અભવસિદ્ધિ હાય છે, તે આ કમ ખાંધે છે ?
या प्रश्ननो भवाम भापता महावीर प्रभु हे छे" भवसिद्धिए भयणाए " लवसिद्धि व ज्ञानावरणीय उर्भ विडये जांघे छे-भेटले કયારેક ખાંધે છે અને કયારેક માંધતા નથી, તેનું કારણ નીચે પ્રમાણે છે
ભવસિદ્ધિક જીવ એ પ્રકારના હાય છે–(૧) વીતરાગ ભવસિદ્ધિક અને (૨) અવીતરાગ ભસિદ્ધિક. તેમાંને વીતરાગ ભવસિદ્ધિ જીવ તે કર્મીના અધ કરતા નથી, પણ અવીતરાગ ભવસિદ્ધિક જીવ તેના બંધ કરે છે, અગિયારમાં, બારમાં અને તેરમાં ગુણસ્થાનના જીવ વીતરાગ ભવસિદ્ધિક હાય છે પણ ચારથી દસ સુધીના ગુણુસ્થાને રહેલા જીવ અવીતરાગ ભસિદ્ધિક હોય છે. તે વાતને ધ્યાનમાં રાખીને અહીં એવું કહ્યું છે કે “ ભવસિદ્ધિક જીવ વિકલ્પે ज्ञानावरीया मध मधे छे. परंतु 'अभवसिद्धिए बंधइ " मलवसिद्धि ( अलव्य) व तो ज्ञानावरणीय मनो अध रे ४ छे. ( णो भवसिद्धिए
श्री भगवती सूत्र : ४